अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त
त्वे क्रतु॒मपि॑ पृञ्चन्ति॒ भूरि॒ द्विर्यदे॒ते त्रिर्भ॑व॒न्त्यूमाः॑। स्वा॒दोः स्वादी॑यः स्वा॒दुना॑ सृजा॒ सम॒दः सु मधु॒ मधु॑ना॒भि यो॑धीः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वे इति॑ । क्रतु॑म् । अपि॑ । पृ॒ञ्च॒न्ति॒ । भूरि॑ । द्वि: । यत् । ए॒ते । त्रि: । भव॑न्ति । ऊमा॑: । स्वा॒दो: । स्वादी॑य: । स्वा॒दुना॑ । सृ॒ज॒ । सम् । अ॒द: । सु । मधु॑। मधु॑ना । अ॒भि । यो॒धी॒: ॥२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वे क्रतुमपि पृञ्चन्ति भूरि द्विर्यदेते त्रिर्भवन्त्यूमाः। स्वादोः स्वादीयः स्वादुना सृजा समदः सु मधु मधुनाभि योधीः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वे इति । क्रतुम् । अपि । पृञ्चन्ति । भूरि । द्वि: । यत् । एते । त्रि: । भवन्ति । ऊमा: । स्वादो: । स्वादीय: । स्वादुना । सृज । सम् । अद: । सु । मधु। मधुना । अभि । योधी: ॥२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
विषय - अपने संकल्पों को प्रभु में सम्पृक्त करना
पदार्थ -
१. हे प्रभो! ये उपासक (त्वे) = आपमें ही (क्रतुम्) = अपने संकल्प व प्रज्ञान को (भूरि) = खूब ही (अपि पृञ्चन्ति) = संपृक्त करते हैं। (एते) = ये आपके साथ अपने को सम्मृक्त करके (ऊमा:) = अपना रक्षण करनेवाले लोग (यत्) = जब (द्विः भवन्ति) = दो बार-प्रात: और सायं आपके ध्यान में होते हैं अथवा (त्रिः) [भवन्ति]-तीन बार-प्रात:सवन, माध्यन्दिनसवन व सायन्तन सवन में आपकी उपासना में स्थित होते हैं तब (स्वादोः स्वादीयः) = स्वादु से भी स्वादु, अर्थात् मधुरतम आप इस उपासक के जीवन को (स्वादुना जसृ) = माधुर्य से संसृष्ट करते हैं। २. इस उपासक के (अदः मधु) = उस मधुर जीवन को (अभियोधी:) = वासनाओं के साथ युद्ध के द्वारा सुमधुना और अधिक माधुर्य से (सम्) = संगत करते हैं।
भावार्थ -
हम अपने संकल्पों व प्रज्ञानों को प्रभु-उपासना में सम्पृक्त करें। प्रतिदिन दो या तीन-बार प्रभु-चरणों में बैठने का नियम बनाएँ। प्रभु वासना-विनाश के द्वारा हमारे जीवनों को मधुर बनाएंगे।
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