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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
    सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त

    नि तद्द॑धि॒षेऽव॑रे॒ परे॑ च॒ यस्मि॒न्नावि॒थाव॑सा दुरो॒णे। आ स्था॑पयत मा॒तरं॑ जिग॒त्नुमत॑ इन्वत॒ कर्व॑राणि॒ भूरि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । तत् । द॒धि॒षे॒ । अव॑रे । परे॑ । च॒ । यस्मि॑न् । आवि॑थ । अव॑सा । दु॒रो॒णे । आ । स्था॒प॒य॒त॒ । मा॒तर॑म् । जि॒ग॒त्नुम् ।अत॑: । इ॒न्व॒त॒ । कर्व॑राणि । भूरि॑॥२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि तद्दधिषेऽवरे परे च यस्मिन्नाविथावसा दुरोणे। आ स्थापयत मातरं जिगत्नुमत इन्वत कर्वराणि भूरि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि । तत् । दधिषे । अवरे । परे । च । यस्मिन् । आविथ । अवसा । दुरोणे । आ । स्थापयत । मातरम् । जिगत्नुम् ।अत: । इन्वत । कर्वराणि । भूरि॥२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. हे प्रभो! (यस्मिन् दुरोणे) = जिस यज्ञशील पुरुष के गृह में (अवसा) = [food, wealth] उत्तम भोजनों व धनों के द्वारा (आविथ) = आप रक्षण करते हो (तत्) = उस गृह को (अवरे परे च) = इस निचली श्रेणी के पार्थिव धन में तथा उत्कृष्ट दिव्य धन में (निदधिषे) = निश्चय से स्थापित करते हो। आप संसार यात्रा के लिए पार्थिव धनों को प्राप्त कराते हो तो अध्यात्म उत्कर्ष के लिए दिव्य धनों को देते हो। २. हे उपासको! तुम अपने गृह में (जिगत्नुम्) = जीवन को गतिमय व विजयशील बनानेवाली (मातरम्) = वेदमाता को (आस्थापयत) = प्रतिष्ठित करो। श्रद्धायुक्त मन से इसका स्वाध्याय करो। (अत:) = इससे-इस वेदवाणी की प्रेरणा से (भूरि) = खूब ही धारण व पोषणात्मक (कर्वराणि) = कर्मों को (इन्वत) = व्याप्त करो, सदा ही उत्कृष्ट कमों में लगे रहो।

    भावार्थ -

    प्रभु हमें पर व अपर दोनों धनों को प्राप्त कराते हैं। संसार-यात्रा के लिए धन तथा अध्यात्म जीवन के लिए ज्ञान । हम घरों में वेदमाता को प्रतिष्ठित करें और उससे प्रेरणा लेकर सदा उत्कृष्ट कर्मों को करनेवाले बनें।

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