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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
    ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त
    52

    नि तद्द॑धि॒षेऽव॑रे॒ परे॑ च॒ यस्मि॒न्नावि॒थाव॑सा दुरो॒णे। आ स्था॑पयत मा॒तरं॑ जिग॒त्नुमत॑ इन्वत॒ कर्व॑राणि॒ भूरि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । तत् । द॒धि॒षे॒ । अव॑रे । परे॑ । च॒ । यस्मि॑न् । आवि॑थ । अव॑सा । दु॒रो॒णे । आ । स्था॒प॒य॒त॒ । मा॒तर॑म् । जि॒ग॒त्नुम् ।अत॑: । इ॒न्व॒त॒ । कर्व॑राणि । भूरि॑॥२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि तद्दधिषेऽवरे परे च यस्मिन्नाविथावसा दुरोणे। आ स्थापयत मातरं जिगत्नुमत इन्वत कर्वराणि भूरि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि । तत् । दधिषे । अवरे । परे । च । यस्मिन् । आविथ । अवसा । दुरोणे । आ । स्थापयत । मातरम् । जिगत्नुम् ।अत: । इन्वत । कर्वराणि । भूरि॥२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमात्मन् !] (अवरे) छोटे (च) और (परे) बड़े मनुष्य में (तत्) उस [घर] को (नि) निश्चय करके (दधिषे) तूने पोषण किया है। (यस्मिन्) जिस (दुरोणे) कष्ट से भरने योग्य घर में (अवसा) अन्न से (आविथ) तूने रक्षा की है। [हे मनुष्यो !] (जिगत्नुम्) सर्वव्यापक (मातरम्) माता [परमेश्वर] को (आ) भली-भाँति (स्थापयत) [हृदय में] ठहराओ और (अतः) इसी से (भूरि) बहुत से (कर्वराणि) कर्मों को (इन्वत) सिद्ध करो ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर की उपासनापूर्वक अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करके अपने सब काम सिद्ध करें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(नि) निश्चयेन (तत्) दुरोणम् (दधिषे) डुधाञ् धारणपोषणयोः−लिट्। पोषितवानसि (अवरे) अल्पे जने (परे) उत्कृष्टे (च) (यस्मिन्) (आविथ) अवतेर्लिट्। त्वं रक्षितवानसि (अवसा) अवः=अन्नम्−निघ० २।७। तर्पकेणान्नेन (दुरोणे) रास्नासास्ना०। उ० ३।१५। इति दुःपूर्वादवतेर्नकि रुटि गुणः। दुरोण इति गृहनाम दुःखा भवन्ति दुस्तर्पाः−निरु० ४।५। दुस्तर्पे गृहे (आ) समन्तात् (स्थापयत) धारयत हृदये हे जनाः (मातरम्) निर्मात्रीं शक्तिम्। परमात्मानम् (जिगत्नुम्) गमेः सन्वच्च। उ० ३।३१। इति गम्लृ−गतौ−क्त्नु। गतिशीलां व्यापिकाम् (अतः) अस्मात्कारणात् (इन्वत) इवि व्याप्तौ। व्याप्नुत। साधयत (कर्वराणि) कॄगॄशॄवॄञ्चतिभ्यः ष्वरच्। उ० २।१२१। इति डुकृञ् करणे−ष्वरच्। कर्माणि−निघ० २।१। (भूरि) भूरीणि ॥

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    विषय

    गृह में मातृ-प्रतिष्ठा

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! (यस्मिन् दुरोणे) = जिस यज्ञशील पुरुष के गृह में (अवसा) = [food, wealth] उत्तम भोजनों व धनों के द्वारा (आविथ) = आप रक्षण करते हो (तत्) = उस गृह को (अवरे परे च) = इस निचली श्रेणी के पार्थिव धन में तथा उत्कृष्ट दिव्य धन में (निदधिषे) = निश्चय से स्थापित करते हो। आप संसार यात्रा के लिए पार्थिव धनों को प्राप्त कराते हो तो अध्यात्म उत्कर्ष के लिए दिव्य धनों को देते हो। २. हे उपासको! तुम अपने गृह में (जिगत्नुम्) = जीवन को गतिमय व विजयशील बनानेवाली (मातरम्) = वेदमाता को (आस्थापयत) = प्रतिष्ठित करो। श्रद्धायुक्त मन से इसका स्वाध्याय करो। (अत:) = इससे-इस वेदवाणी की प्रेरणा से (भूरि) = खूब ही धारण व पोषणात्मक (कर्वराणि) = कर्मों को (इन्वत) = व्याप्त करो, सदा ही उत्कृष्ट कमों में लगे रहो।

    भावार्थ

    प्रभु हमें पर व अपर दोनों धनों को प्राप्त कराते हैं। संसार-यात्रा के लिए धन तथा अध्यात्म जीवन के लिए ज्ञान । हम घरों में वेदमाता को प्रतिष्ठित करें और उससे प्रेरणा लेकर सदा उत्कृष्ट कर्मों को करनेवाले बनें।

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर ! (अवरे, परे च) अवरलोक तथा पर के लोकरूपी (यस्मिन् दुरोणे) जिस घर में (अवसा) उस-उसकी रक्षा की भावना से (आविथ) तू प्रविष्ट हुआ-हुआ है, उस घर में रहकर तू (तत् ) उसे ( नि दधिषे) नितरां धारण करता है । [ हे मनुष्यो !] (जिगत्नुम्) सर्वगत या सर्वविजयिनी उस पारमेश्वरी (मातरम् ) माता को ( आ स्थापयत) तुम निज हृदयों में स्थापित करो, (अतः) और इस माता से प्रेरणाएं पाकर (भूरि) प्रभूत (कर्वराणि) श्रेष्ठ कर्म ( इन्वत ) करो ।

    टिप्पणी

    [आविथ = अव प्रवेशे (भ्वादिः)। कर्वराणि=कर्वरम् कर्मनाम (निघं० २।१) । इन्वत इवि व्याप्तो (भ्वादिः)।]

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    विषय

    जगत् स्रष्टा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे इन्द्र ! परमात्मन् ! (अवरे परे च) छोटे और बड़े, निकृष्ट और उत्कृष्ट (यस्मिन् दुरोणे) जिस घर या देह में भी (तद्) तू उस ब्रह्म अर्थात् वेद-ज्ञान को (दधिषे) धारण करता है (अवसा आविथ) उस देह में तू हमारी रक्षा करता है। इसलिये हे पुरुषो ! तुम उस (जिगत्नुं) दिजयशील (मातरं) सबके निर्माता या ज्ञाता प्रभु को (आ स्थापयत) अपने में स्थापित करो। और (अतः) इसके सहारे ही (भूरि) बहुत से (कर्वराणि) विक्षेपक, चित डुलाने वाले कार्यों या विषय विघ्नों को (इन्वत) पार कर जाओ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहद्दिव अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १-८ त्रिष्टुभः। ९ भुरिक् परातिजागता त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma, the Highest

    Meaning

    You sustain this physical world close at hand and visible to the eye and also the other invisible world of metaphysical and spiritual reality in which you protect and maintain every thing with your power in their very home and in their nature. O friends, stabilise the motherly presence of divine love, vibrant and victorious, in your heart and thereby win over all doubts and fluctuations and achieve your goals.

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    Translation

    I praise Him, who is worthy of praise, multiform, vast, supreme, most accessible of the accessible ones; he strikes with might the seven types of clouds (or seven evil impulses). He verily subdues many opposing arts. (Also Rg. X.120.6)

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    Translation

    O God of might; Thou guardest by Thy protection that house in which live the highest and the lowest and givest riches. O men; establish in the reces of your heart the Almighty God who is All-pervading and the progenitor of all and thus accomplish many deeds.

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    Translation

    O God, Thou preservest the Vedic knowledge in each house (body) big or small, and nourishest us with food. O men, establish that All-pervading Mother (God) in your heart, and through His help, achieve success in various undertakings.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(नि) निश्चयेन (तत्) दुरोणम् (दधिषे) डुधाञ् धारणपोषणयोः−लिट्। पोषितवानसि (अवरे) अल्पे जने (परे) उत्कृष्टे (च) (यस्मिन्) (आविथ) अवतेर्लिट्। त्वं रक्षितवानसि (अवसा) अवः=अन्नम्−निघ० २।७। तर्पकेणान्नेन (दुरोणे) रास्नासास्ना०। उ० ३।१५। इति दुःपूर्वादवतेर्नकि रुटि गुणः। दुरोण इति गृहनाम दुःखा भवन्ति दुस्तर्पाः−निरु० ४।५। दुस्तर्पे गृहे (आ) समन्तात् (स्थापयत) धारयत हृदये हे जनाः (मातरम्) निर्मात्रीं शक्तिम्। परमात्मानम् (जिगत्नुम्) गमेः सन्वच्च। उ० ३।३१। इति गम्लृ−गतौ−क्त्नु। गतिशीलां व्यापिकाम् (अतः) अस्मात्कारणात् (इन्वत) इवि व्याप्तौ। व्याप्नुत। साधयत (कर्वराणि) कॄगॄशॄवॄञ्चतिभ्यः ष्वरच्। उ० २।१२१। इति डुकृञ् करणे−ष्वरच्। कर्माणि−निघ० २।१। (भूरि) भूरीणि ॥

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