अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त
61
इ॒मा ब्रह्म॑ बृ॒हद्दि॑वः कृणव॒दिन्द्रा॑य शू॒षम॑ग्रि॒यः स्व॒र्षाः। म॒हो गो॒त्रस्य॑ क्षयति स्व॒राजा॒ तुर॑श्चि॒द्विश्व॑मर्णव॒त्तप॑स्वान् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मा । ब्रह्म॑ । बृ॒हत्ऽदि॑व: । कृ॒ण॒व॒त् । इन्द्रा॑य । शू॒षम् । अ॒ग्रि॒य: । स्व॒:ऽसा: । म॒ह: । गो॒त्रस्य॑ । क्ष॒य॒ति॒ । स्व॒ऽराजा॑ । तुर॑: । चि॒त् । विश्व॑म् । अ॒र्ण॒व॒त् । तप॑स्वान् ॥२.८॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा ब्रह्म बृहद्दिवः कृणवदिन्द्राय शूषमग्रियः स्वर्षाः। महो गोत्रस्य क्षयति स्वराजा तुरश्चिद्विश्वमर्णवत्तपस्वान् ॥
स्वर रहित पद पाठइमा । ब्रह्म । बृहत्ऽदिव: । कृणवत् । इन्द्राय । शूषम् । अग्रिय: । स्व:ऽसा: । मह: । गोत्रस्य । क्षयति । स्वऽराजा । तुर: । चित् । विश्वम् । अर्णवत् । तपस्वान् ॥२.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(बृहद्दिवः) बड़े व्यवहार वा गतिवाला, (अग्रियः) अगुआ और (स्वर्षाः) स्वर्ग का सेवन करनेवाला पुरुष (इन्द्राय) परमेश्वर के लिये (इमा) इन (ब्रह्म=ब्रह्माणि) बड़े स्तोत्रों को (शूषम्) अपना बल (कृणवत्) बनावे। (स्वराजा) वह स्वतन्त्र राजा परमेश्वर (महः) बड़े (गोत्रस्य) भूपति राजा का (क्षयति) राजा है, और वह (तुरः) शीघ्र स्वभाव, (तपस्वान्) सामर्थ्यवाला परमात्मा (चित्) ही (विश्वम्) सब जगत् में (अर्णवत्) व्यापता है ॥८॥
भावार्थ
मनुष्य जगदीश्वर परम पिता के गुण जान कर अपना बल बढ़ावें ॥८॥
टिप्पणी
८−(इमा) इमानि (ब्रह्म) ब्रह्माणि बृहन्ति स्तोत्राणि (बृहद्दिवः) इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति बृहत्+दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारस्तुतिगत्यादिषु−क। बृहद्व्यवहारवान्। महागतिमान् पुरुषः (कृणवत्) कृवि हिंसाकरणयोः−लेट्। कुर्यात् (इन्द्राय) परमेश्वराय (शूषम्) बलनाम−निघ० २।९। स्वबलम् (अग्रियः) घच्छौ च। पा० ४।४।११७। इति अग्र−घ। अग्रे भवः। श्रेष्ठः (स्वर्षाः) जनसनखनक्रम०। पा० ३।२।६७। इति षण सम्भक्तौ दाने च−विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इत्यात्वम्। सनोतेरनः। पा० ८।३।१०८। इति षत्वम्। स्वर्गस्य सम्भक्ता सेवनकर्ता (महः) महतः (गोत्रस्य) गो+त्रैङ् रक्षणे−क। गोः पृथिव्या रक्षकस्य पुरुषस्य (क्षयति) क्षि ऐश्ये। ईष्टे (स्वराजा) स्वतन्त्रः स्वामी (तुरः) शीघ्रस्वभावः (चित्) एव (विश्वम्) सर्वं जगत् (अर्णवत्) ऋण गतौ−लडर्थे लेट्। अर्णोति। व्याप्नोति (तपस्वान्) ऐश्वर्यवान् ॥
विषय
प्रकाश, बल व तेजस्वी इन्द्रियसमूह
पदार्थ
१. (बृहद् दिव:) = प्रभु से ज्ञान प्राप्त करके उत्कृष्ट ज्ञान-धनवाला यह उपासक (इन्द्राय) = प्रभु की प्रासि के लिए (इमा ब्रह्म कृणवत्) = इन स्तोत्रों को करता है। इस स्तवन से (अग्रिय:) = जीवन मार्ग में आगे बढ़नेवाला यह 'बृहद् दिव' (स्वर्षा:) = प्रकाश को प्राप्त करनेवाला होता है, (शूषम् क्षयति) = शत्रु-शोषक बल को प्राप्त करता है और (महः गोत्रस्य) = तेजस्वी इन्द्रियसमूह का ईश्वर होता है [क्षि=to govern, rule, to be master of]|२. यह (स्वराजा) = आत्मज्ञान से दीस होनेवाला (तुरः) = शत्रुओं का संहार करनेवाला उपासक (तपस्वान्) = तपस्वी होता हुआ (चित्) = निश्चय से (विश्वम्) = सम्पूर्ण (अर्णवत्) = [ऋण-जल] ज्ञान-जल से पूर्ण ज्ञान-समुद्र वेद को [क्षयति] प्राप्त होता है [रायः समुद्राश्चतुरः]।
भावार्थ
ज्ञान प्राप्त करके हम प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाले बनें। यह स्तवन हमें प्रकाश, बल व तेजस्वी 'इन्द्रियसमूह' को प्राप्त कराएगा।
भाषार्थ
(अग्रियः) सर्वाग्रणी, (स्वर्षाः) सुखप्रदाता ( बृहद्दिवः१) महाद्युति - वाले परमेश्वर ने ( इमा ब्रह्म = इमानि ब्रह्माणि) इन मन्त्रों या अथर्ववेद के मन्त्रों को,(शूषम् = शूषाणि) जोकि सुखदायी हैं,-(इन्द्राय२) इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीवात्मा के लिए ( कृणवत् ) प्रकट किया है । (स्वराजा) स्वयं राजमान अर्थात् प्रकाशमान परमेश्वर (महः गोत्रस्य) महान् तथा रश्मियों के पालक सूर्य में ( क्षयति ) निवास करता है, और ( तपस्वान् ) प्रतापी या ऐश्वर्यवान् वह (तुरः चित् ) त्वरया अर्थात् शीघ्र ही ( विश्वम्) विश्व में (अर्णवत्) व्याप्त हो जाता है।
टिप्पणी
[बृहद् दिवः=बृहत् ( महान् ) +दिवः (द्युतिवाला), दिव्+क: ( इगुपधत्वात्, अष्टा० ३।१।१३५)। स्वर्षाः=स्वः (सुख)+षणु दाने। दिव:= दिव् द्युति (दिवादिः), परमेश्वर द्युतिमान् है, स्वयं द्युतिमान् है, अतः वह सूर्य आदि को द्यृतिसम्पन्न करता है, वह ज्ञानद्युति से भी सम्पन्न है, अतः वह इन्द्र, अर्थात् जीवात्मा को भी मन्त्र प्रदान या वेद प्रदान करता है।अथर्ववेद का नाम ब्रह्मवेद भी है। शूषम् सुखनाम (निघं० ३।६ )। गोत्रस्य = गावः सूर्यरश्मयः तेषां त्राता सूर्यः, तस्य । तपस्वान्=तप ऐश्वर्ये (दिवादिः)।] [१. बृहद्दिवः= अथवा "दिवः बृहद्" अर्थात् द्युलोक से बड़ा ब्रह्म, परमेश्वर। २. महर्षि दयानन्द के अनुसार सूक्तों और मन्त्रों के अर्थों के द्रष्टा हैं ऋषि अर्थात् मानुष=ऋषि । ऐसे मानुष ऋषियों की सत्ता न हो तो सूक्तों और मन्त्रों का न पूर्वकालीन होना सम्भव है, न "तत् समकालीन", अतः जिन सूक्तों और मन्त्रों में पठित नामपदों को ऋषि के रूप में अनुक्रमणिका आदि में कहा है, ये सब काल्पनिक हैं, वास्तविक नहीं, ऐसे स्थलों में वास्तविक ऋषिनाम अलभ्य है, या ऐसे स्थलों में मन्त्रार्थ-द्रष्टा या मन्त्र-प्रवक्ता कोई मानुष-ऋषि कभी हुए ही नहीं। अथवा यह माना जा सकता है कि वेदाविर्भाव के पश्चात्, मन्त्र या सूक्त में पठित ऋषिनामों के सदृश, निज नाम धारण कर, उन नामों द्वारा वे मन्त्र या सूक्त के प्रवक्ता या अर्थद्रष्टा हुए हैं। ये विकल्प केवल अनुसंधानार्थ दिये हैं।]
विषय
जगत् स्रष्टा का वर्णन।
भावार्थ
(अग्रियः) श्रेष्ठ, (स्वर्षाः) स्वर्ग अर्थात् मोक्ष सुख का भोग करने हारा (बृहद्-दिवः) महान् सूर्य के समान तेजस्वी होकर (इन्द्राय) प्रभु परमेश्वर के वर्णन में (इमा ब्रह्म) इन ब्रह्मज्ञानों को या इन ब्रह्म अर्थात् विशाल शक्तियों को ही अपने (शूषम्) बल रूप में (कृणवन्) प्रकट करता है वह महायोगी, मोक्षगामी पुरुष (स्वराजा) स्वयं अपने तेजोबल से सर्वत्र प्रकाशमान होकर (महः गोत्रस्य) उस महान् संसार के रक्षक परमात्मा के आश्रय में (क्षयति) रह कर ऐश्वर्य को प्राप्त करता है। और (तुरश्चित्) अति वेगवान्, मनोजवा। होकर (तपस्वान्) तपोबल से सम्पन्न होकर (विश्वम् अर्णवत्) समस्त संसार में भ्रमण करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहद्दिव अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १-८ त्रिष्टुभः। ९ भुरिक् परातिजागता त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahma, the Highest
Meaning
Enlightened sage, eminent, most wise of divine vision, having realised heavenly light, offers these songs in honour of Indra who, self-refulgent ruler of this mighty dominion, awfully blazing in glory, faster than the fastest, radiates and vibrates in the infinite ocean of space.
Translation
The wisest, the foremost, the most enlightened person repeats these prayers to gratify the Lord of resplendence. He dominates over the great self-luminous folds of regions and throws open all his doors of divine knowledge and treasure. (Also Rg. X.120.8)
Translation
Highly enlightened man, enjoying the first rank in his spiritual attainment, endowed with happiness makes the Vedic speech his sole Strength in attaining God. He is the rulers of the world by Himself and rules this grand family of the world. Possessing all powers and quick in his activities He pervades the world.
Translation
An excellent yogi, enjoying the felicity of salvation, brilliant like the great sun, in expatiating on God, displays these divine powers as his strength. He, the master of self, residing in the Almighty God enjoys supremacy. Ever active, equipped with the strength of austerity, roams in the universe.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(इमा) इमानि (ब्रह्म) ब्रह्माणि बृहन्ति स्तोत्राणि (बृहद्दिवः) इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति बृहत्+दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारस्तुतिगत्यादिषु−क। बृहद्व्यवहारवान्। महागतिमान् पुरुषः (कृणवत्) कृवि हिंसाकरणयोः−लेट्। कुर्यात् (इन्द्राय) परमेश्वराय (शूषम्) बलनाम−निघ० २।९। स्वबलम् (अग्रियः) घच्छौ च। पा० ४।४।११७। इति अग्र−घ। अग्रे भवः। श्रेष्ठः (स्वर्षाः) जनसनखनक्रम०। पा० ३।२।६७। इति षण सम्भक्तौ दाने च−विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इत्यात्वम्। सनोतेरनः। पा० ८।३।१०८। इति षत्वम्। स्वर्गस्य सम्भक्ता सेवनकर्ता (महः) महतः (गोत्रस्य) गो+त्रैङ् रक्षणे−क। गोः पृथिव्या रक्षकस्य पुरुषस्य (क्षयति) क्षि ऐश्ये। ईष्टे (स्वराजा) स्वतन्त्रः स्वामी (तुरः) शीघ्रस्वभावः (चित्) एव (विश्वम्) सर्वं जगत् (अर्णवत्) ऋण गतौ−लडर्थे लेट्। अर्णोति। व्याप्नोति (तपस्वान्) ऐश्वर्यवान् ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal