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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
    ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त
    56

    स्तु॒ष्व व॑र्ष्मन्पुरु॒वर्त्मा॑नं॒ समृभ्वा॑णमि॒नत॑ममा॒प्तमा॒प्त्याना॑म्। आ द॑र्शति॒ शव॑सा॒ भूर्यो॑जाः॒ प्र स॑क्षति प्रति॒मानं॑ पृथि॒व्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तु॒ष्व । व॒र्ष्म॒न् । पु॒रु॒ऽवर्त्मा॑नम् । सम् । ऋभ्वा॑णम् । इ॒नऽत॑मम् । आ॒प्तम् । आ॒प्त्याना॑म् ।आ । द॒र्श॒ति॒ । शव॑सा । भूरि॑ऽओजा: । प्र । स॒क्ष॒ति॒ । प्र॒ति॒ऽमान॑म् । पृ॒थि॒व्या: ॥२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तुष्व वर्ष्मन्पुरुवर्त्मानं समृभ्वाणमिनतममाप्तमाप्त्यानाम्। आ दर्शति शवसा भूर्योजाः प्र सक्षति प्रतिमानं पृथिव्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तुष्व । वर्ष्मन् । पुरुऽवर्त्मानम् । सम् । ऋभ्वाणम् । इनऽतमम् । आप्तम् । आप्त्यानाम् ।आ । दर्शति । शवसा । भूरिऽओजा: । प्र । सक्षति । प्रतिऽमानम् । पृथिव्या: ॥२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (वर्ष्मन्) हे ऐश्वर्यवान् पुरुष ! (पुरुवर्त्मानम्) बहुत मार्गवाले (ऋभ्वाणम्) दूर-दूर तक चमकनेवाले, (इनतमम्) महा प्रभु और (आप्त्यानाम्) आप्त [यथार्थवक्ता] पुरुषों में रहनेवाले गुणों के (आप्तम्) यथार्थवक्ता परमेश्वर की (सम्) यथावत् (स्तुष्व) स्तुति कर। (भूर्योजाः) वह महाबली (शवसा) अपने बल से (आ) सब ओर (दर्शति) देखता है, और वह (पृथिव्याः) पृथिवी का (प्रतिमानम्) प्रतिमान होकर (प्र) भली-भाँति (सक्षति) व्यापता है ॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्य जगदीश्वर परमात्मा के गुण कर्म स्वभाव विचार कर अपनी उन्नति करें ॥७॥ (पृथिव्याः प्रतिमानम्) इसके साथ मिलान करो [पृथिवीव वरिम्णा] य० ३।५। वह पृथिवी के समान अपने फैलाव से है ॥

    टिप्पणी

    ७−(स्तुष्व) प्रशंस (वर्ष्मन्) अ० ३।४।२। वृष प्रजननैश्ययोः−मनिन्। हे ऐश्वर्य्यवन् मनुष्य (पुरुवर्त्मानम्) बहुमार्गवन्तम् (सम्) सम्यक् (ऋभ्वाणम्) आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। इति उरु+भा दीप्तौ यद्वा भू सत्तायाम्−वनिप्, स च डित्। उरुशब्दस्य ऋकारः। ऋभव उरु भान्तीति वा, ऋतेन भान्तीति वा, ऋतेन भवन्तीति वा−निरु० ११।१५। उरु−भासनम्। उरुभूतम् (इनतमम्) अतिशयेनेश्वरं (आप्तम्) आप्लृ−क्त। यथार्थवक्तारम् (आप्त्यानाम्) आप्त−यत्। आप्तेषु यथार्थज्ञातृषु भवानां गुणानाम् (आ) समन्तात् (दर्शति) पश्यति (शवसा) बलेन (भूर्योजाः) महाबलः (प्र) प्रकर्षेण (सक्षति) षच समवाये−लेटि सिप्। गतिकर्मा−निघ० २।१४। सक्षतिराप्नोतिकर्मा−निरु० ११।२१। व्याप्नोति (प्रतिमानम्) माङ् माने−ल्युट्। प्रतिरूपं सत् (पृथिव्याः) भूमेः ॥

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    विषय

    प्रतिमानं पृथिव्याः

    पदार्थ

    १. हे जीव! तू (वर्ष्मन्) = [शरीरं वर्मविग्रहः] इस मानव-शरीर में उस प्रभु का (स्तुष्व) = स्तवन कर जो प्रभु (पुरुवर्त्मानिम्) = पालक व पूरक मार्गवाले हैं। प्रभु-प्राप्ति का मार्ग हमें नीरोगता व निर्मलता की ओर ले-चलता है। वे प्रभु (समृभ्वाणम्) = ज्ञान से सम्यग् दीप्त हैं, (इनतमम्) = सर्वमहान् स्वामी हैं, (आप्त्यानाम् आप्तम्) = विश्वसनीयों में विश्वसनीय हैं। प्रभु-भक्त को किसी प्रकार का संशय नहीं रहता। प्रभु उपासकों का रक्षण करते ही हैं। वे (भूर्योजा:) = अनन्त बलवाले प्रभु (शवसा) = बल के द्वारा (आदर्शति) = समन्तात् दृष्टिगोचर होते हैं-सर्वत्र प्रभु की शक्ति कार्य करती हुई प्रतीत होती है। वे प्रभु (पृथिव्याः) = पृथिवी के (प्रतिमानम्) = प्रतिमान को-समानता को (प्रसक्षति) = धारण करते हैं, अर्थात् इस पृथिवी की भाँति सबके आधार होते हुए सबका पालन व पोषण करते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु का मार्ग पालन व पूरण करनेवाला है। प्रभु ज्ञानदीप्त हैं, सर्वेश्वर हैं, विश्वसनीयतम आधार हैं। सर्वत्र प्रभु की शक्ति कार्य करती हुई दृष्टिगोचर होती है। प्रभु पृथिवी की भाँति सर्वाधार हैं।।

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    भाषार्थ

    (वर्ष्मन्) हे शक्तिशालिन् ! या स्तुतियों की वर्षा करनेवाले स्तोत: ! तू (पुरुवर्त्मानम्१) नाना मार्गोंवाले, (ऋभ्वाणम् ) बहुभासमान, (इनतमम् ) स्वामियों के स्वामी, (आप्त्यानाम् ) प्रापणीय पदार्थों में (आप्तम्) पूर्वतः प्राप्त हुए, या आप्तों में आप्त परमेश्वर की ( स्तुष्व) स्तुति किया कर । (भूर्योजाः) प्रभूत ओजस्वाला परमेश्वर ( शवसा ) निज बल द्वारा (आ दर्शति) सब [आसुर भावों को] विदीर्ण कर देता है और ( पथिव्याः ) पृथिवी की (प्रतिमानम्) प्रतिमा के रूप को (सक्षति) प्राप्त है, अर्थात् पृथिवीवत् सबका पालक है ।

    टिप्पणी

    [ऋभु=ऋभवः "उरु भान्तीति वा " (निरुक्त ११।२।१५) । आदित्यरश्मयोऽप्यृभवः उच्यन्ते (निरुक्त ११।२।१५)। अर्थात् बहु भासमान और आदित्यरश्मियों की तरह प्रकाशमान परमेश्वर। आप्तम् = परमेश्वर नित्य और व्यापक होने से सबको पूर्वतः ही प्राप्त है । सक्षति गतिकर्मा (निघं० २।१४ ); गतेस्त्रयोsर्थाः ज्ञानं गतिः प्राप्तिश्च। दर्शति= दृ विदारणे; अथवा दृशिर् प्रेक्षणे ( भ्वादिः ) अर्थात् आसुर भावों पर कड़ी दृष्टि रखता है । ] [१. ब्रह्माण्ड में नक्षत्र तारे, सूर्य, ग्रह, उपग्रह पुच्छल तारा, सब मिलकर असंख्य हैं, और इनमें से प्रत्येक अपने-अपने मार्ग पर गति कर रहा है, और परस्पर टकराते नहीं, क्योंकि परमेश्वर इन मार्गों का स्वामी है, और इनकी गतियों का नियन्त्रण कर रहा है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma, the Highest

    Meaning

    O dedicated man of generous heart, worship and adore the lord of universal presence, self-refulgent, glorious, omniscient wise over all the wise self-realised sages, closer at hand than anything else. That lord of infinite might shines by his own light all round, and sym¬ bolically takes over the image of the vast mother earth.

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    Translation

    You bestow lower (i.e. material) and higher (ie., the spiritual) wealth both, to the houses of your devotee, whom you love and provide protection, you maintain the two ever-revolving Mothers (Earth and the Sun) in dynamic equilibrium, and with glory, you accomplish many wondrous deeds. (Also Rg. X.120.7)

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    Translation

    O man of wisdom; praise and adore Him who is Present in the worlds in various ways, who is full of all glamour of Knowledge, who is the highest Lord of all and who is the adept of highest Standing amongst the adepts. He manifest Him in the world as most powerful through His Power. He is the pattern of the earth and He Pervades all.

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    Translation

    O noble person, praise duly, God, Who pervades all the worlds, is Refulgent with true knowledge, Foremost of all, and the most learned of the learned. Through strength He shows Himself of ample power. Pattern of Earth, He rears us all.

    Footnote

    Patten of Earth: Just as Earth feeds mankind, so does God, like Earth, rear and nourish us all. Griffith interprets Aptya to be chief of deities dwelling in the waters of the sea of air. This interpretation is fantastic. The word means, a highly learned man of extreme sacrificing nature.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(स्तुष्व) प्रशंस (वर्ष्मन्) अ० ३।४।२। वृष प्रजननैश्ययोः−मनिन्। हे ऐश्वर्य्यवन् मनुष्य (पुरुवर्त्मानम्) बहुमार्गवन्तम् (सम्) सम्यक् (ऋभ्वाणम्) आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। इति उरु+भा दीप्तौ यद्वा भू सत्तायाम्−वनिप्, स च डित्। उरुशब्दस्य ऋकारः। ऋभव उरु भान्तीति वा, ऋतेन भान्तीति वा, ऋतेन भवन्तीति वा−निरु० ११।१५। उरु−भासनम्। उरुभूतम् (इनतमम्) अतिशयेनेश्वरं (आप्तम्) आप्लृ−क्त। यथार्थवक्तारम् (आप्त्यानाम्) आप्त−यत्। आप्तेषु यथार्थज्ञातृषु भवानां गुणानाम् (आ) समन्तात् (दर्शति) पश्यति (शवसा) बलेन (भूर्योजाः) महाबलः (प्र) प्रकर्षेण (सक्षति) षच समवाये−लेटि सिप्। गतिकर्मा−निघ० २।१४। सक्षतिराप्नोतिकर्मा−निरु० ११।२१। व्याप्नोति (प्रतिमानम्) माङ् माने−ल्युट्। प्रतिरूपं सत् (पृथिव्याः) भूमेः ॥

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