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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 9
    ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - भुरिक्परातिजागता त्रिष्टुप् सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त
    102

    ए॒वा म॒हान्बृ॒हद्दि॑वो॒ अथ॒र्वावो॑च॒त्स्वां त॒न्वमिन्द्र॑मे॒व। स्वसा॑रौ मात॒रिभ्व॑री अरि॒प्रे हि॒न्वन्ति॑ चैने॒ शव॑सा व॒र्धय॑न्ति च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । म॒हान् । बृ॒हत्ऽदि॑व: । अथ॑र्वा । अवो॑चत् । स्वाम् । त॒न्व᳡म् । इन्द्र॑म् । ए॒व । स्वसा॑रौ । मा॒त॒रिभ्व॑री॒ इति॑ । अ॒रि॒प्रे इति॑ । हि॒न्वन्ति॑ । च॒ । ए॒ने॒ इति॑ । शव॑सा । व॒र्धय॑न्ति । च॒ ॥२.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा महान्बृहद्दिवो अथर्वावोचत्स्वां तन्वमिन्द्रमेव। स्वसारौ मातरिभ्वरी अरिप्रे हिन्वन्ति चैने शवसा वर्धयन्ति च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । महान् । बृहत्ऽदिव: । अथर्वा । अवोचत् । स्वाम् । तन्वम् । इन्द्रम् । एव । स्वसारौ । मातरिभ्वरी इति । अरिप्रे इति । हिन्वन्ति । च । एने इति । शवसा । वर्धयन्ति । च ॥२.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (महान्) महान्, (बृहद्दिवः) बड़े व्यवहारवाले, (अथर्वा) निश्चलस्वभाव पुरुष ने (स्वाम्) अपनी (तन्वम्) विस्तृत स्तुति (इन्द्रम्) परमेश्वर के लिये (एव) इस प्रकार से (अवोचत्) कही है। (मातरिभ्वरी) आकाश में वर्तमान (स्वसारौ) अच्छे प्रकार ग्रहण करनेवाले वा गतिवाले [वा दो बहिनों के समान सहायकारी] दिन और रात (च) और (अरिप्रे) निर्दोष (एने) यह दोनों [सूर्य और पृथिवी] (शवसा) अपने सामर्थ्य से [उसी को] (हिन्वन्ति) प्रसन्न करती (च) और (वर्धयन्ति) सराहती हैं ॥९॥

    भावार्थ

    हम से पहिले ऋषियों ने भी उसी परमात्मा की स्तुति की है, और दिन रात आदि काल और सूर्य पृथिवी आदि सब लोक उसी के आज्ञाकारी हैं ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(एव) एवम् (महान्) गुणैरधिकः (बृहद्दिवः) म० ८। बृहद्व्यवहारवान् (अथर्वा) अ० ४।१।७। निश्चलो मनुष्यः (अवोचत्) वचेर्लुङ्। प्रोक्तवान् (स्वाम्) आत्मीयाम् (तन्वम्) विस्तृतां स्तुतिम्, इति सायणः−ऋ० १०।१२०।९। (इन्द्रम्) परमेश्वरं प्रति (एव) निश्चयेन (स्वसारौ) स्वसा सु असा स्वेषु सीदतीति वा−निरु० ११।३२। सावसेर्ऋन्। उ० २।९६। इति सु+असु क्षेपणे, यद्वा अस दीप्तौ, ग्रहणे, गतौ, सत्तायां च−ऋन्। सुष्ठु ग्रहणशीले गतिशीले वा यद्वा भगिन्यौ यथा सह दृश्यमाने। अहोरात्रौ (मातरिभ्वरी) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति मातरि+भू सत्तायाम्−वनिप्, स च डित्। वनो र च। पा० ४।१।७। इति ङीब्रेफौ। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। मातर्यन्तरिक्षे [निरु० ७।२६] वर्तमाने (अरिप्रे) रप व्यक्तायां वाचि−रक्। रपो रिप्रमिति पापनामनी भवतः−निरु० ४।२१। निर्दोषे (हिन्वन्ति) हिवि प्रीणने। प्रीणयन्ति तर्पयन्ति (च) समुच्चये (एने) दृश्यमाने द्यावापृथिव्यौ (शवसा) स्वसामर्थ्येन (वर्धयन्ति) स्तुवन्ति (च) समुच्चये ॥

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    विषय

    स्वसारौ मातरिभ्वरी अरिप्रे

    पदार्थ

    १. (एव) = इसप्रकार (महान्) = पूजा की वृत्तिवाला, (बृहद् दिव:) = उत्कृष्ट ज्ञानवाला (अथर्वा) = न डॉवाडोल वृत्तिवाला पुरुष (स्वां तन्वम्) = अपने शरीर को (इन्द्रम् एव अवोचत्) = परमेश्वर ही कहता है-अन्त:स्थित प्रभु के कारण अपने को प्रभु ही समझता है। शीशी में शहद हो तो शीशी की ओर संकेत करके यही तो कहा जाता है कि 'यह शहद है'। इसीप्रकार अन्त:स्थित प्रभु को देखता हुआ यह अपने शरीर की ओर निर्देश करता हुआ यही कहता है कि यह प्रभु ही है'। २. इस अथर्वा की 'ब्रह्म व क्षत्र' दोनों शक्तियों इसे (स्वसारौ) = आत्मतत्त्व की ओर ले जानेवाली होती हैं, (मातरिभ्वरी) = [मातरि-भूवन्] ये इसे वेदमाता की गोद में स्थापित करती हैं और (अरिप्रे) = निर्दोष जीवनवाला बनाती हैं। इसी हेतु ये 'बृहद्दिव अथर्वा' लोग (एने हिन्वन्ति) = इन दोनों को अपने में प्रेरित करते हैं (च) = तथा (शवसा) = गति के द्वारा [शवतिर्गतिकर्मा] इन्हें (वर्धयन्ति) = बढ़ाते हैं|

    भावार्थ

    एक ज्ञानी पुरुष अन्त:स्थित प्रभु को देखता हुआ अपने को प्रभु से भिन्न अनुभव नहीं करता। यह ज्ञान व बल के द्वारा आत्मतत्व की ओर चलता है, वेदमाता की गोद में आसीन होता है और इसप्रकार निर्दोष जीवनवाला बनता है। ज्ञानी पुरुष इन 'ब्रह्म व क्षत्र' को बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं। अगला सूक्त भी 'बृहहिव अथर्वा' का ही है |

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    भाषार्थ

    (एव) इस प्रकार ( महान् ) महान्, (अथर्वा) निश्चल, कूटस्थ, (बृहद् दिवः) महाद्युतिसम्पन्न परमेश्वर ने (स्वाम्) निज (तन्वम् ) व्यापक स्वरूप को (इन्द्रम्, एव) इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीवात्मा के प्रति ही (अवोचत् ) कहा । (स्वसारौ) स्वयं सरण करने वाली ( मातरिभ्वरी) अन्तरिक्षमाता में सत्तावाली (अरिप्रे) पापों से रहित (एने) ये "द्यौ: - पृथिवी," [बृहद्दिवः ] तथा बृहद्-दिव परमेश्वर [ ये तीनों] (हिन्वन्ति) इन्द्र को प्रेरित करते रहते हैं, (च) और (शवसा) बल [ प्रदान] द्वारा (वर्धयन्ति) इसे बढ़ाते रहते हैं ।

    टिप्पणी

    [अथर्वा=थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्प्रतिषेधः (निरुक्त ११।२।१९) अर्थात् निश्चल, कूटस्थ । मातरि =यथा 'मातरिश्वा' पद की व्याख्या में "मातरिश्वा वायुर्मातर्यन्तरिक्षे श्वसिति , मातरि आशु अनितीति वा " (निरुक्त ७।७।२६) । अरिप्रे =द्युलोक और पृथिवीलोक पाप-रहित हैं । इनमें पाप की सत्ता मनुष्य-कृत है । शवः बलनाम (निघं० २।९)] [सूक्त १, २ में त्रित, वरुण और बृहद्-दिव नामों द्वारा, परमेश्वर के भिन्न-भिन्न गुणों और कर्मों का निर्देश कर, एक परमेश्वर का ही कथन किया है ।]

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    विषय

    जगत् स्रष्टा का वर्णन।

    भावार्थ

    (एवा) पूर्व मन्त्रों में कहे अनुसार (अथर्वा) ज्ञानी तपस्वी (बृहद्-दिवः) परमेश्वर की गोद में क्रीड़ा करने वाला, मोक्षगामी पुरुष (स्वां तन्वं) अपने आत्मा को भी (इन्द्रम् एव) ऐश्वर्यवान् ही (अवोचत्) कहा करता है। (मातरिभ्वरी) माता, जगन्निर्माता में गति करने वाली (स्वसारौ) दोनों स्वयं आगे २ बढ़ने वाली, दोनों बहनों के समान सदा साथ रहने वाली, चितिशक्ति और मनन शक्ति दोनों (अरि-प्रे) अरि= स्वामी में पूर्ण रूप से व्यापक या (अ-रित्रे) निर्दोष, निष्पाप, निर्मल होंकर रहती हैं। साधक लोग (शवसा) अपने बल से (एने) इन दोनों को ही (हिन्वन्ति) आगे प्रेरित करते हैं और (वर्धयन्ति च) बढ़ाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहद्दिव अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १-८ त्रिष्टुभः। ९ भुरिक् परातिजागता त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma, the Highest

    Meaning

    Thus does the great sage of exalted vision and wisdom, his mind and heart at peace in samadhi, address the infinite spirit of Indra, immanent in his own self. These two, heaven and earth, rotating in the mother presence of Indra, both sinless, address and exalt that lord with all their might. Thus also the mind and intelligence of the sage, both free from pollution and fluctuations, celebrate and exalt the spirit of the sage.

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    Translation

    Thus the great and most enlightened one, the divine wisdom repeats his praise to our Lord on resplendence. The spotless sisters, the streaming channels of consciousness, who are his mothers go to Lord of resplendence, speak high of Him and impel Him onward (for our support). (Also Rg. X.120.9)

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    Translation

    In this way, the highly enlightened man, firm in his decision, offers his prayers only to Almighty God. Like two sisters these night and day present in the Sky and these heaven and earth with vigor become the sources of impelling him onward and exalting him.

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    Translation

    Thus does a learned, austere yogi, sporting in the lap of God, and hankering after salvation, speak of his soul as full of power. Two pure, immaulate sisters reside in God, the Creator of the universe. Yogis, with their power impel them onward and exalt them.

    Footnote

    Two sisters: Perception, Reflection. God is attainable through these two pure farces free from stain. ‘Them' refers to sisters. Griffith describes these sisters to be Heaven and Earth. Some commentators describe them as Day and Night. Brihad Diva and Atharva are not the names of Rishis "Atharva" means a learned, austere yogi "Brihad-Diva" means a Yogi hankering after salvation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(एव) एवम् (महान्) गुणैरधिकः (बृहद्दिवः) म० ८। बृहद्व्यवहारवान् (अथर्वा) अ० ४।१।७। निश्चलो मनुष्यः (अवोचत्) वचेर्लुङ्। प्रोक्तवान् (स्वाम्) आत्मीयाम् (तन्वम्) विस्तृतां स्तुतिम्, इति सायणः−ऋ० १०।१२०।९। (इन्द्रम्) परमेश्वरं प्रति (एव) निश्चयेन (स्वसारौ) स्वसा सु असा स्वेषु सीदतीति वा−निरु० ११।३२। सावसेर्ऋन्। उ० २।९६। इति सु+असु क्षेपणे, यद्वा अस दीप्तौ, ग्रहणे, गतौ, सत्तायां च−ऋन्। सुष्ठु ग्रहणशीले गतिशीले वा यद्वा भगिन्यौ यथा सह दृश्यमाने। अहोरात्रौ (मातरिभ्वरी) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति मातरि+भू सत्तायाम्−वनिप्, स च डित्। वनो र च। पा० ४।१।७। इति ङीब्रेफौ। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। मातर्यन्तरिक्षे [निरु० ७।२६] वर्तमाने (अरिप्रे) रप व्यक्तायां वाचि−रक्। रपो रिप्रमिति पापनामनी भवतः−निरु० ४।२१। निर्दोषे (हिन्वन्ति) हिवि प्रीणने। प्रीणयन्ति तर्पयन्ति (च) समुच्चये (एने) दृश्यमाने द्यावापृथिव्यौ (शवसा) स्वसामर्थ्येन (वर्धयन्ति) स्तुवन्ति (च) समुच्चये ॥

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