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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त
    49

    त्वे क्रतु॒मपि॑ पृञ्चन्ति॒ भूरि॒ द्विर्यदे॒ते त्रिर्भ॑व॒न्त्यूमाः॑। स्वा॒दोः स्वादी॑यः स्वा॒दुना॑ सृजा॒ सम॒दः सु मधु॒ मधु॑ना॒भि यो॑धीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वे इति॑ । क्रतु॑म् । अपि॑ । पृ॒ञ्च॒न्ति॒ । भूरि॑ । द्वि: । यत् । ए॒ते । त्रि: । भव॑न्ति । ऊमा॑: । स्वा॒दो: । स्वादी॑य: । स्वा॒दुना॑ । सृ॒ज॒ । सम् । अ॒द: । सु । मधु॑। मधु॑ना । अ॒भि । यो॒धी॒: ॥२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वे क्रतुमपि पृञ्चन्ति भूरि द्विर्यदेते त्रिर्भवन्त्यूमाः। स्वादोः स्वादीयः स्वादुना सृजा समदः सु मधु मधुनाभि योधीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वे इति । क्रतुम् । अपि । पृञ्चन्ति । भूरि । द्वि: । यत् । एते । त्रि: । भवन्ति । ऊमा: । स्वादो: । स्वादीय: । स्वादुना । सृज । सम् । अद: । सु । मधु। मधुना । अभि । योधी: ॥२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमात्मन् !] (त्वे अपि) तुझ में ही (क्रतुम्) अपनी बुद्धि को (भूरि) बहुत प्रकार से [सब प्राणी] (पृञ्चन्ति) जोड़ते हैं। (एते) यह सब (ऊमाः) रक्षक प्राणी (द्विः) दो बार [स्त्री पुरुष रूप से] (त्रिः) तीन बार (स्थान, नाम और जन्म रूप से) (भवन्ति) रहते हैं। (यत्) क्योंकि (स्वादोः) स्वादु से (स्वादीयः) अधिक स्वादु मोक्षसुख को (स्वादुना) स्वादु [सांसारिक सुख] के साथ (सम् सृज) संयुक्त कर] (अदः) उस (मधु) मधुर मोक्षसुख को (मधुना) मधुर [सांसारिक ज्ञान के साथ (सु) भले प्रकार (अभि) सब ओर से (योधीः) तूने पहुँचाया है ॥३॥

    भावार्थ

    लिङ्गरहित आत्मा कभी स्त्री कभी पुरुष होकर अपने कर्मानुसार मनुष्य आदि शरीर, नाम और जाति भोगता है। सब प्राणी परमेश्वर की महिमा जानकर सांसारिक व्यवहार द्वारा मोक्ष सुख प्राप्त करें, जैसे कि पूर्वज ऋषियों ने वेद द्वारा प्राप्त किया है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(त्वे) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेः शे आदेशः। त्वयि (क्रतुम्) प्रज्ञाम्−निघ० ३।९। (अपि) एव (पृञ्चन्ति) पृची सम्पर्के। संयोजयन्ति सर्वे प्राणिनः (भूरि) बहुप्रकारेण (द्विः) द्वित्रिचतुर्भ्यः सुच्। पा० ५।४।१८। इति सुच्। द्विवारं स्त्रीरूपेण पुंरूपेण च (यत्) यस्मात्। (एते) दृश्यमानाः (त्रिः) त्रि−सुच्। त्रिवारं स्थाननामजन्मरूपेण। धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीति−निरु० ९।२८। (भवन्ति) वर्तन्ते (ऊमाः) म० १। रक्षकाः (स्वादोः) स्वादुनः। प्रियात् (स्वादीयः) स्वादु−ईयसुन्। स्वादुतरम्। प्रियतरं मोक्षसुखम् (स्वादुना) प्रियेण सांसारिकसुखेन (सम् सृज) संयोजय (अदः) तत् (सु) सुष्ठु (मधु) मधुरं मोक्षसुखम् (मधुना) मधुरेण सांसारिकज्ञानेन (अभि) अभितः (योधीः) युध्यति गतिकर्मा−निघ० २।१४। छान्दसं लुङि रूपम्। अयोत्सीः। त्वं गमितवान् प्रापितवानसि ॥

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    विषय

    अपने संकल्पों को प्रभु में सम्पृक्त करना

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! ये उपासक (त्वे) = आपमें ही (क्रतुम्) = अपने संकल्प व प्रज्ञान को (भूरि) = खूब ही (अपि पृञ्चन्ति) = संपृक्त करते हैं। (एते) = ये आपके साथ अपने को सम्मृक्त करके (ऊमा:) = अपना रक्षण करनेवाले लोग (यत्) = जब (द्विः भवन्ति) = दो बार-प्रात: और सायं आपके ध्यान में होते हैं अथवा (त्रिः) [भवन्ति]-तीन बार-प्रात:सवन, माध्यन्दिनसवन व सायन्तन सवन में आपकी उपासना में स्थित होते हैं तब (स्वादोः स्वादीयः) = स्वादु से भी स्वादु, अर्थात् मधुरतम आप इस उपासक के जीवन को (स्वादुना जसृ) = माधुर्य से संसृष्ट करते हैं। २. इस उपासक के (अदः मधु) = उस मधुर जीवन को (अभियोधी:) = वासनाओं के साथ युद्ध के द्वारा सुमधुना और अधिक माधुर्य से (सम्) = संगत करते हैं।

    भावार्थ

    हम अपने संकल्पों व प्रज्ञानों को प्रभु-उपासना में सम्पृक्त करें। प्रतिदिन दो या तीन-बार प्रभु-चरणों में बैठने का नियम बनाएँ। प्रभु वासना-विनाश के द्वारा हमारे जीवनों को मधुर बनाएंगे।

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    भाषार्थ

    (त्वे) तुझमें हे परमेश्वर ! ( भूरि ) प्रभूत रूप में (क्रतुम्) कर्म और प्रज्ञा को (अपि, पृञ्चन्ति) भी सम्पृक्त कर देते हैं, समर्पित कर देते हैं [ सद्गृहस्थी ]; (यत् ) जबकि वे (द्विः) दो-दो होते हुए (त्रिः भवन्ति) तीन-तीन हो जाते हैं, (ऊमाः) और प्राणिमात्र के रक्षक हो जाते हैं। [ हे सद्गृहस्थ !] तू (स्वादोः) स्वादु से (स्वादीयः) अधिक स्वादु को, (स्वादुना) स्वादु के साथ, (सम् सृज) संसर्ग कर। ( अदः ) उस ( सुमधु) उत्तम मधु को (मधुना) मधु के साथ ( अभि योधी:) साक्षात् मिश्रित कर।

    टिप्पणी

    [क्रतुः कर्मनाम, क्रतुः प्रज्ञानाम (निघं० २।१; ३।९) । पृञ्चन्ति पुची सम्पर्के (रुधादिः)। (द्वि। त्रिः) विवाह हो जाने पर दो-दो, और एक पुत्र पैदा हो जाने पर तीन-तीन । आदर्श गृहस्थी के लिए एक पुत्र पर्याप्त माना है, जोकि उत्तराधिकारी हो सके । ऊमाः =अव रक्षणे । गृहस्थी के लिए पञ्चमहायज्ञों का विधान है । पञ्च महायज्ञों से गृहस्थी प्राणिमात्र की सेवा करते हैं। सांसारिक सुख स्वादु है, परन्तु मोक्ष का सुख इससे भी अधिक स्वादु है। मोक्षसुख के साथ-साथ सांसारिक सुख का संसर्ग अर्थात् मेल करना अभीष्ट है तथा मधुरूप सांसारिक सुख का मिश्रण मधुरूप मोक्षसुख के साथ करना चाहिए-यह गृहस्थी के लिए उपदेश है। अभियोधी:= अभि = साक्षात् "यु" मिश्रणे (अदादि:) । सूक्त के अवशिष्ट मन्त्रों में भी गृहस्थी का वर्णन हुआ है । अभियोधी:=अभि +यो+धी: (हेधिः)। विसर्गान्तदीर्घः ईकारः छान्दसः। "मधुनाभि योधि " (तैत्तिरीय संहिता)। ]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma, the Highest

    Meaning

    And they all, celebrants of divinity, dedicate all their yajnic actions and prayers to you when they join in two and grow to three in the family. O lord sweeter than sweetness itself, join the sweets of life with honey, and with honey and with divine bliss create life over¬ flowing with sweetness, love and ecstasy.

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    Translation

    All devotees offer adoration and concentrate on you, at times, twice or thrice. May you blend a more tasteful one to the tasty and savoury. May you mix honey with honey to make it further exhilarating. (Also Rg. X.120.3)

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    Translation

    All the worldly subjects at the time when they grow twice and thrice concentrate their minds and actions on Thee. O Lord; blend with sweetness whatever is sweeter than sweet and furnish with taste whatever is more tasteful than the tasteful one.

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    Translation

    O God, when all human beings unite their mental vigour with Thee, they become doubly and trebly strong. With Thy Exhilarative strength, grant us salvation, sweeter than the sweet, and blend that elixir with our soul!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(त्वे) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेः शे आदेशः। त्वयि (क्रतुम्) प्रज्ञाम्−निघ० ३।९। (अपि) एव (पृञ्चन्ति) पृची सम्पर्के। संयोजयन्ति सर्वे प्राणिनः (भूरि) बहुप्रकारेण (द्विः) द्वित्रिचतुर्भ्यः सुच्। पा० ५।४।१८। इति सुच्। द्विवारं स्त्रीरूपेण पुंरूपेण च (यत्) यस्मात्। (एते) दृश्यमानाः (त्रिः) त्रि−सुच्। त्रिवारं स्थाननामजन्मरूपेण। धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीति−निरु० ९।२८। (भवन्ति) वर्तन्ते (ऊमाः) म० १। रक्षकाः (स्वादोः) स्वादुनः। प्रियात् (स्वादीयः) स्वादु−ईयसुन्। स्वादुतरम्। प्रियतरं मोक्षसुखम् (स्वादुना) प्रियेण सांसारिकसुखेन (सम् सृज) संयोजय (अदः) तत् (सु) सुष्ठु (मधु) मधुरं मोक्षसुखम् (मधुना) मधुरेण सांसारिकज्ञानेन (अभि) अभितः (योधीः) युध्यति गतिकर्मा−निघ० २।१४। छान्दसं लुङि रूपम्। अयोत्सीः। त्वं गमितवान् प्रापितवानसि ॥

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