अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 27/ मन्त्र 10
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - इळा, सरस्वती, भारती
छन्दः - षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा परातिजगती
सूक्तम् - अग्नि सूक्त
तन्न॑स्तु॒रीप॒मद्भु॑तं पुरु॒क्षु। देव॑ त्वष्टा रा॒यस्पो॑षं॒ वि ष्य॒ नाभि॑मस्य ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । न॒: । तु॒रीष॑म् । अत्ऽभु॑तम् । पु॒रु॒ऽक्षु । देव॑ । त्व॒ष्ट॒: । रा॒य: । पोष॑म् । वि । स्य॒ । नाभि॑म् । अ॒स्य ॥२७.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
तन्नस्तुरीपमद्भुतं पुरुक्षु। देव त्वष्टा रायस्पोषं वि ष्य नाभिमस्य ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । न: । तुरीषम् । अत्ऽभुतम् । पुरुऽक्षु । देव । त्वष्ट: । राय: । पोषम् । वि । स्य । नाभिम् । अस्य ॥२७.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 10
विषय - हम धन में हो, पर उससे बैंध न जाएँ
पदार्थ -
१. (त्वष्टः देव) = सर्वनिर्मात:, दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभो! आप (न:) = हमारे लिए (तत्) = उस (तुरीपम्) = [तुरी-great strength] महती शक्ति के रक्षक, (अद्भुतम्) = आश्चर्यकारक गुणों को उत्पन करनेवाले, (पुरुक्षु) ृ पालन व पूराण करनेवाले तथा उत्तम निवासवाले [पुरुक्षु, पृपालनपूरणयोः, क्षि निवासगत्योः], (रायस्पोषम्) ृ धन के पोषण को (विष्य) ृ छोड़िए-बरसाइए, अर्थात् खूब प्राप्त कराइए। २. धन तो हमें प्राप्त कराइए, परन्तु हे प्रभो! (नाभि:) ृ इस धन के बन्धन को [णह बन्धने] (अस्य) = [असु क्षेपणे] परे फेंक दीजिए। यह धन हमें बाँधनेवाला न हो।
भावार्थ -
हे प्रभो! हमें वह धन प्राप्त कराइए जो शक्ति का रक्षक व अद्भुत उन्नति का साधक हो, जो पालक-पूरक ब निवास को उत्तम बनानेवाला हो। साथ ही यह भी अनुग्रह कीजिए कि हम धन में फंस न जाएँ।
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