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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - इळा, सरस्वती, भारती छन्दः - बृहतीगर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - अग्नि सूक्त

    ऊ॒र्ध्वा अ॑स्य स॒मिधो॑ भवन्त्यू॒र्ध्वा शु॒क्रा शो॒चींष्य॒ग्नेः। द्यु॒मत्त॑मा सु॒प्रती॑कः॒ ससू॑नु॒स्तनू॒नपा॒दसु॑रो॒ भूरि॑पाणिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वा: । अ॒स्य॒ । स॒म्ऽइध॑: । भ॒व॒न्ति॒ । ऊ॒र्ध्वा । शु॒क्रा । शो॒चीषि॑ । अ॒ग्ने: । द्यु॒मत्ऽत॑मा । सु॒ऽप्रती॑क: । सऽसू॑नु: । तनू॒ऽनपा॑त् । असु॑र: । भूरि॑ऽपाणि: ॥२७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वा अस्य समिधो भवन्त्यूर्ध्वा शुक्रा शोचींष्यग्नेः। द्युमत्तमा सुप्रतीकः ससूनुस्तनूनपादसुरो भूरिपाणिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वा: । अस्य । सम्ऽइध: । भवन्ति । ऊर्ध्वा । शुक्रा । शोचीषि । अग्ने: । द्युमत्ऽतमा । सुऽप्रतीक: । सऽसूनु: । तनूऽनपात् । असुर: । भूरिऽपाणि: ॥२७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (अस्य अग्नेः) = [अग्निः अग्रणी:] इस आगे-और-आगे बढ़नेवाले की (समिधः) = दीतियाँ (ऊर्ध्वा:) = उत्कृष्ट (भवन्ति) = होती हैं। इसकी सब इन्द्रियाँ शक्तियों से दीस होती हैं। इस अग्नि की (शुक्रा) = अत्यन्त शुद्ध (शोचीषि) = मानस पवित्रताएँ (ऊर्ध्वा भवन्ति) = उत्कृष्ट होती हैं। इसका शरीर नीरोग व शक्ति-सम्पत्र होता है तो मन भी पूर्ण निर्मल। इसकी ज्ञान-दीतियाँ भी (द्युमत्तमा) = अतिशयेन दीप्तिवाली होती है। २. इसप्रकार यह अग्नि (सुप्रतीक:) = तेजस्वी, शोभन मुखबाला (स-सूनुः) = उत्तम सन्तानों से युक्त (तनूनपात्) = शरीर के स्वास्थ्य को न गिरने देनेवाला, (असुरः) = अपने में प्राणशक्ति का सञ्चार करनेवाला, (भूरिपाणिः) = पालक व पोषक हाथोंवाला होता है।

    भावार्थ -

    ब्रह्मा वह है जिसकी तेजस्विता, मानस पवित्रता व ज्ञानदीप्ति उत्कृष्ट है, जो उत्तम मुखवाला, उत्तम सन्तानवाला, स्वस्थ, प्राणशक्ति-सम्पन्न व रक्षक हाथोंवाला है।

     

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