अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 27/ मन्त्र 12
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - इळा, सरस्वती, भारती
छन्दः - षट्पदानुष्टुब्गर्भा परातिजगती
सूक्तम् - अग्नि सूक्त
अ॑ग्ने॒ स्वाहा॑ कृणुहि जातवेदः। इन्द्रा॑य य॒ज्ञं विश्वे॑ दे॒वा ह॒विरि॒दं जु॑षन्ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । स्वाहा॑। कृ॒णु॒हि॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । इन्द्रा॑य । य॒ज्ञम् । विश्वे॑ । दे॒वा: । ह॒वि: । इ॒दम्। जु॒ष॒न्ता॒म् ॥२७.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने स्वाहा कृणुहि जातवेदः। इन्द्राय यज्ञं विश्वे देवा हविरिदं जुषन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । स्वाहा। कृणुहि । जातऽवेद: । इन्द्राय । यज्ञम् । विश्वे । देवा: । हवि: । इदम्। जुषन्ताम् ॥२७.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 12
विषय - रस यज्ञशेष का सेवन
पदार्थ -
१. (अग्ने) = हे प्रगतिशील जीव ! (जातवेदः) = [वेदस्-wealth] उत्तम धनवाले जीव! तु (स्वाहा कणुहि) = इस धन को अग्नि में आहुत करनेवाला बन। इस धन द्वारा अग्निहोत्र करनेवाला बन। यह तेरी नीरोगता का साधक होगा। (इन्द्राय) = शत्रु-विद्रावक राजा के लिए [कृणुहि] इस धन को प्रदान कर । कर-प्राप्त धन से ही तो वह इन्द्र राष्ट्र-रक्षण करेगा। २. (विश्वेदेवाः) = सब देव (यजम्) = तेरे इस दान को (जुषन्ताम्) = प्राप्त हों, सेवन करें। इस धन से ही वे प्रजाहित के कार्यों को करनेवाले बनेंगे। सब लोगों को यही चाहिए कि (इदं हवि:) = इस दानपूर्वक अदन का (जुषन्ताम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करें। दान दें, बचे हुए को ही खाएँ।
भावार्थ -
एक प्रगतिशील धन-प्राप्त व्यक्ति धन का विनियोग अग्निहोत्र में करे। राजा के लिए धन दे, विद्वानों के लिए धन दे तथा सदा बचे हुए को ही खाए। यह यज्ञशेष ही अमृत है, इसी का सेवन ठीक है।
विशेष -
गतमन्त्र के अनुसार धनाकर्षण से डौंवाडोल न होनेवाला 'अथर्वा' अगले सूक्त का ऋषि है।