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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 27/ मन्त्र 9
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - इळा, सरस्वती, भारती छन्दः - षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा परातिजगती सूक्तम् - अग्नि सूक्त

    दैवा॒ होता॑र ऊ॒र्ध्वम॑ध्व॒रं नो॒ऽग्नेर्जि॒ह्वया॒भि गृ॑णत गृ॒णता॑ नः॒ स्वि॑ष्टये। ति॒स्रो दे॒वीर्ब॒र्हिरेदं स॑दन्ता॒मिडा॒ सर॑स्वती म॒ही भार॑ती गृणा॒ना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दैवा॑: । होता॑र: । ऊ॒र्ध्वम्‌ । अ॒ध्व॒रम् । न॒: । अ॒ग्ने: । जि॒ह्वया॑ । अ॒भि ।गृ॒ण॒त॒ । गृ॒णत॑ । न॒: । सुऽइ॑ष्टये । ति॒स्र: । दे॒वी: । ब॒र्हि: । आ । इ॒दम् । स॒द॒न्ता॒म् । इडा॑ । सर॑स्वती। म॒ही । भार॑ती । गृ॒णा॒ना ॥२७.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दैवा होतार ऊर्ध्वमध्वरं नोऽग्नेर्जिह्वयाभि गृणत गृणता नः स्विष्टये। तिस्रो देवीर्बर्हिरेदं सदन्तामिडा सरस्वती मही भारती गृणाना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दैवा: । होतार: । ऊर्ध्वम्‌ । अध्वरम् । न: । अग्ने: । जिह्वया । अभि ।गृणत । गृणत । न: । सुऽइष्टये । तिस्र: । देवी: । बर्हि: । आ । इदम् । सदन्ताम् । इडा । सरस्वती। मही । भारती । गृणाना ॥२७.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 9

    पदार्थ -

    १. (दैवा:) = उस देव [प्रभु] से शरीर में स्थापित किये गये (होतार:) = जीवन-यज्ञ को चलानेवाले हे प्राणो! (न:) = हमारे (अध्वरम् ऊर्ध्वम्) = जीवन-यज्ञ को उत्कृष्ट बनाओ। उस (अग्ने:) = अग्रणी प्रभु की-प्रभु से दी गई (जिहया) = जिला से (अभिगृणत) = प्रात:-सायं प्रभु के नामों का उच्चरण करो। (न: स्विष्टये) = हमारी स्विष्टि के लिए उत्तम अभीष्टों की प्राप्ति के लिए गणत-प्रभु का स्तवन करो। यह प्रभु-स्तवन हमें उत्तम प्रेरणा प्राप्त कराता हुआ अधिक-और-अधिक उन्नत करता है। २. (इडा) = प्रशस्त अन्न [इडा इति अन्ननाम निघण्टौ], (सरस्वती) = ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता तथा (भारती) = हमारा समुचित भरण करनेवाली (मही) = पूजा की वृत्ति [मह पूजायाम्] ये (तिस्त्रः) = तीनों (देवी:) = दिव्यताएँ (इदं बर्हिः) = इस वासनाशून्य हृदय में (आसदन्ताम्) - आसीन हों। ये सब दिव्य वस्तुएँ व गुण एक-एक करके (गृणाना) = प्रभु का ही नामोच्चरण करनेवाली हों। प्रशस्त अन्न हमें सात्विक वृत्तिवाला बनाकर प्रभु नामोच्चारण कराये, ज्ञान हमें प्रभु नामोच्चरण में प्रवृत्त करे, स्तुति में हम प्रभु-नामोच्चारण करें।

    भावार्थ -

    प्रभु से शरीर में स्थापित किये गये प्राण हमें यज्ञों में प्रवृत्त करें और जिह से हम प्रभु के नामों का उच्चारण करें। 'प्रशस्त अन्न का सेवन, विद्या का आराधन व प्रभुस्तवन' ये सब हमें प्रभु नामोच्चारण में प्रवृत्त करें।

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