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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 9
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - इळा, सरस्वती, भारती छन्दः - षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा परातिजगती सूक्तम् - अग्नि सूक्त
    164

    दैवा॒ होता॑र ऊ॒र्ध्वम॑ध्व॒रं नो॒ऽग्नेर्जि॒ह्वया॒भि गृ॑णत गृ॒णता॑ नः॒ स्वि॑ष्टये। ति॒स्रो दे॒वीर्ब॒र्हिरेदं स॑दन्ता॒मिडा॒ सर॑स्वती म॒ही भार॑ती गृणा॒ना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दैवा॑: । होता॑र: । ऊ॒र्ध्वम्‌ । अ॒ध्व॒रम् । न॒: । अ॒ग्ने: । जि॒ह्वया॑ । अ॒भि ।गृ॒ण॒त॒ । गृ॒णत॑ । न॒: । सुऽइ॑ष्टये । ति॒स्र: । दे॒वी: । ब॒र्हि: । आ । इ॒दम् । स॒द॒न्ता॒म् । इडा॑ । सर॑स्वती। म॒ही । भार॑ती । गृ॒णा॒ना ॥२७.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दैवा होतार ऊर्ध्वमध्वरं नोऽग्नेर्जिह्वयाभि गृणत गृणता नः स्विष्टये। तिस्रो देवीर्बर्हिरेदं सदन्तामिडा सरस्वती मही भारती गृणाना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दैवा: । होतार: । ऊर्ध्वम्‌ । अध्वरम् । न: । अग्ने: । जिह्वया । अभि ।गृणत । गृणत । न: । सुऽइष्टये । तिस्र: । देवी: । बर्हि: । आ । इदम् । सदन्ताम् । इडा । सरस्वती। मही । भारती । गृणाना ॥२७.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    पुरुषार्थ का उपदेश।

    पदार्थ

    (दैवाः) विद्वानों में रहनेवाले विद्वान् (होतारः) हे दानशील पुरुषो ! (नः) हमारे (ऊर्ध्वम्) ऊँचे (अध्वरम्) अकुटिल व्यवहार को (अग्नेः) [शारीरिक और बाह्य] तेज की (जिह्वया) जय से (नः) हमारे (स्विष्टये) अच्छे समागम के लिये (अभि) अच्छे प्रकार (गृणत) वर्णन करो और (गृणत) वर्णन करो। (तिस्रः) तीनों (देवीः) देवियाँ (महती) विशाल गुणवाली (गृणाना) उपदेश करती हुई (इडा) स्तुतियोग्य नीति, (सरस्वती) विज्ञानवती बुद्धि और (भारती) पोषण करनेवाली विद्या (इदम्) इस (बर्हिः) बढ़े हुए कर्म में (आ सदन्ताम्) आवें ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का मिलान अ० ५।१२।८। के साथ करो ॥

    टिप्पणी

    ९−(दैवाः) देव−अञ्। देवेषु विद्वत्सु भवाः। विद्वांसः (होतारः) सुखस्य दातारः (ऊर्ध्वम्) उन्नतम् (अध्वरम्) न+ध्वृ−अच्। अकुटिलं व्यवहारम् (नः) अस्माकम् (अग्नेः) शारीरिकस्य बाह्यस्य तेजसः [जिह्वया] अ० १।१०।३। जि जये−वन् हुक् च। जयेन (अभि) सर्वतः (गृणत गृणत) नित्यं गृणीत वर्णयत (नः) अस्माकम् (स्विष्टये) यज−क्तिन्। शोभनाय समागमाय (मही) महती। विशालगुणवती (गृणाना) उपदिशन्ती। अन्यद् यथा, अ० ५।१२८। (तिस्रः) त्रिसंख्याकाः (देवीः) देव्यः। दीप्यमानाः (बर्हिः) प्रवृद्धं कर्म (आसदन्ताम्) आगच्छन्तु (इडा) स्तुत्या नीतिः (सरस्वती) विज्ञानवती प्रज्ञा (भारती) पोषयित्री विद्या ॥ सब विद्वान् मनुष्य उत्तम-उत्तम नीति, बुद्धि और अनेक व्यावहारिक विद्यायें प्राप्त करके परस्पर वृद्धि करें ॥

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    विषय

    प्रभु-नामोच्चारण

    पदार्थ

    १. (दैवा:) = उस देव [प्रभु] से शरीर में स्थापित किये गये (होतार:) = जीवन-यज्ञ को चलानेवाले हे प्राणो! (न:) = हमारे (अध्वरम् ऊर्ध्वम्) = जीवन-यज्ञ को उत्कृष्ट बनाओ। उस (अग्ने:) = अग्रणी प्रभु की-प्रभु से दी गई (जिहया) = जिला से (अभिगृणत) = प्रात:-सायं प्रभु के नामों का उच्चरण करो। (न: स्विष्टये) = हमारी स्विष्टि के लिए उत्तम अभीष्टों की प्राप्ति के लिए गणत-प्रभु का स्तवन करो। यह प्रभु-स्तवन हमें उत्तम प्रेरणा प्राप्त कराता हुआ अधिक-और-अधिक उन्नत करता है। २. (इडा) = प्रशस्त अन्न [इडा इति अन्ननाम निघण्टौ], (सरस्वती) = ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता तथा (भारती) = हमारा समुचित भरण करनेवाली (मही) = पूजा की वृत्ति [मह पूजायाम्] ये (तिस्त्रः) = तीनों (देवी:) = दिव्यताएँ (इदं बर्हिः) = इस वासनाशून्य हृदय में (आसदन्ताम्) - आसीन हों। ये सब दिव्य वस्तुएँ व गुण एक-एक करके (गृणाना) = प्रभु का ही नामोच्चरण करनेवाली हों। प्रशस्त अन्न हमें सात्विक वृत्तिवाला बनाकर प्रभु नामोच्चारण कराये, ज्ञान हमें प्रभु नामोच्चरण में प्रवृत्त करे, स्तुति में हम प्रभु-नामोच्चारण करें।

    भावार्थ

    प्रभु से शरीर में स्थापित किये गये प्राण हमें यज्ञों में प्रवृत्त करें और जिह से हम प्रभु के नामों का उच्चारण करें। 'प्रशस्त अन्न का सेवन, विद्या का आराधन व प्रभुस्तवन' ये सब हमें प्रभु नामोच्चारण में प्रवृत्त करें।

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    भाषार्थ

    (दैवाः होतारः) हे दिव्य होताओ ! (गृणाता:= गृणानाः) उपदेश देनेवाले तुम (अभिगृणत१) हमें उपदेश दो और ( अग्नि: जिह्वया) यज्ञिय अग्नि की जिह्वा द्वारा (न: अध्वरम्) हमारे हिंसारहित यज्ञ को ( ऊर्ध्वम् ) ऊर्ध्वस्थ [आदित्य ] की ओर [पहुंचाओ], (नः) हमारी (स्विष्टये) उत्तम या सुफला दृष्टि के लिए। (तिस्रः देवी:) तीन देवियां (इदम्) इस (बर्हिः) कुशास्तरण पर (आ सदन्ताम् ) बैठे, (इडा) इडा, (मही गृणाना सरस्वती) महनीया तथा उपदेश देनेवाली विज्ञानवती वेदवाणी, (भारती ) तथा आदित्यप्रभा।

    टिप्पणी

    [दिव्य होता चार हैं, होता, उद्गाता, अध्वर्यु, ब्रह्मा। ये चारों होता है, यज्ञाग्नि में आहुति देने में सहायक हैं। होता =हु दाने (जुहोत्यादिः)। होता 'आह्वाता' नहीं, अपितु दाता हैं। अग्नि की जिह्वा है उग्र लपट, ज्वाला। स्विष्टि है उत्तम या सुफला इष्टि अर्थात् यज्ञ। यह इष्टि सुफला तब होती है जब यज्ञोत्थ धूम आदित्य की ओर गति करता है, यथा "अग्नौ प्रास्ताहुतिस्तावदादित्यमुपतिष्ठते, आदित्याज्जायते वृष्टिः वृष्टेरन्नं ततः प्रजा" (ते० उपनिषद्)। वृष्टि और अन्न द्वारा इष्टि, 'सु-इष्टि' होती है। मन्त्र में 'इडा' पद संदिग्धार्थक है। इडा =इळा= अन्न (निघं० २।७), या वाक् (निघं० १।११)। यह मानुषीवाक् है२, यजमान आदि द्वारा की गई देवस्तुति । सरस्वती है विज्ञानवती वेदवाणी । भारती है भरण-पोषण करनेवाले आदित्य की प्रभा, रोशनी; "भरतः आदित्यः तस्य प्रभा" (निरुक्त ८।२।१०)। आ सदन्ताम्=बैठे। यह औपचारिक वर्णन है, अभिप्राय है यज्ञ में इन तीनों का उपयोग, स्थिति।] [१. अभिगृणत= गृ शब्दे (क्र्यादिः)। २. निरुक्त में "तिस्रो देवी" सम्बन्धी मन्त्र की व्याख्या हुई है। मन्त्र है (ऋ० १०।११०।८)। इसमें कहा है कि "इळा मनुष्वत्", अर्थात् इळा का सम्बन्ध मनुष्य के साथ है, यह मानुषीवाक् है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Agni and Dynamics of Yajna

    Meaning

    May the divine yajna performers of nature and humanity promote and exalt our yajna of love, non¬ violence and socio-natural cohesion by the rising flames of Agni and the vaulting words of divinity, and thus may they promote and exalt our yajna for our common good. And may the three great divinities, Ida, Sarasvati and Bharati, divine Nature, divine knowledge and divine ethics and policy of holistic nature emanating from absolute divinity, Vedic knowledge and the sanctity of great living existence, seated on this vedi of our yajna of the social human order promote and bless us and our yajnic programme.

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    Translation

    O divine priests (daivà hotará), may you raise our this sacrifice to lofty heights and may you praise it with the tongues of sacrificial fire; praise for our successful sacrifice. May the three great divinities, the Sarasvati, Mahi and Bharati, praised by all, be seated at this sacrificer. (Also Yv. XXVII.18 and 19) (Tisro-devih)

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    Translation

    O brilliant priests! please praise the utility of our sacred yajna which enjoys a lofty position through the flame fire, express the words of appreciation for our peons and good acts. The three wondrous and important things—Mother tongue, mother culture and mother land have their abodes in our heart enjoying ***all…….*** from us.

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    Translation

    O noble learned persons, exalt this immortal soul of ours. Praise Godwith His Vedic verses. Give us instructions for the acquisition of God. Maythe three highly qualified and instructive forces of statesmanship, intellectand knowledge adorn this soul!

    Footnote

    See Yajur, 27-18, 19; Rig, 1-142-10; Atharva, 5-12-8.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(दैवाः) देव−अञ्। देवेषु विद्वत्सु भवाः। विद्वांसः (होतारः) सुखस्य दातारः (ऊर्ध्वम्) उन्नतम् (अध्वरम्) न+ध्वृ−अच्। अकुटिलं व्यवहारम् (नः) अस्माकम् (अग्नेः) शारीरिकस्य बाह्यस्य तेजसः [जिह्वया] अ० १।१०।३। जि जये−वन् हुक् च। जयेन (अभि) सर्वतः (गृणत गृणत) नित्यं गृणीत वर्णयत (नः) अस्माकम् (स्विष्टये) यज−क्तिन्। शोभनाय समागमाय (मही) महती। विशालगुणवती (गृणाना) उपदिशन्ती। अन्यद् यथा, अ० ५।१२८। (तिस्रः) त्रिसंख्याकाः (देवीः) देव्यः। दीप्यमानाः (बर्हिः) प्रवृद्धं कर्म (आसदन्ताम्) आगच्छन्तु (इडा) स्तुत्या नीतिः (सरस्वती) विज्ञानवती प्रज्ञा (भारती) पोषयित्री विद्या ॥ सब विद्वान् मनुष्य उत्तम-उत्तम नीति, बुद्धि और अनेक व्यावहारिक विद्यायें प्राप्त करके परस्पर वृद्धि करें ॥

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