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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 11
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - इळा, सरस्वती, भारती छन्दः - षट्पदानुष्टुब्गर्भा परातिजगती सूक्तम् - अग्नि सूक्त
    96

    वन॑स्प॒तेऽव॑ सृजा॒ ररा॑णः। त्मना॑ दे॒वेभ्यो॑ अ॒ग्निर्ह॒व्यं श॑मि॒ता स्व॑दयतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वन॑स्पते । अव॑ । सृ॒ज॒ । ररा॑ण: । त्मना॑ । दे॒वेभ्य॑: । अ॒ग्नि: । ह॒व्यम् । श॒मि॒ता । स्व॒द॒य॒तु॒ ॥२७.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वनस्पतेऽव सृजा रराणः। त्मना देवेभ्यो अग्निर्हव्यं शमिता स्वदयतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वनस्पते । अव । सृज । रराण: । त्मना । देवेभ्य: । अग्नि: । हव्यम् । शमिता । स्वदयतु ॥२७.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुरुषार्थ का उपदेश।

    पदार्थ

    (वनस्पते) हे सेवनीय शास्त्र के रक्षक (रराणः) दानशील तू (अव सृज) दान कर। (शमिता) शान्ति करनेवाला (अग्निः) विद्वान् पुरुष (त्मना) आत्मबल से (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (हव्यम्) ग्राह्यपदार्थ अन्न आदि को (स्वादयतु) स्वादु बनावे ॥११॥

    भावार्थ

    विद्वान् पुरुष विद्वानों का सत्कार करके विद्या आदि उत्तम गुणों की वृद्धि करे ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(वनस्पते) वनस्य सम्भजनीयस्य शास्त्रस्य पालकः−इति दयानन्दभाष्ये, यजु० २७।२१। (अव सृज) दानं कुरु (रराणः) रा दाने−कानच्। रराणो रातिरभ्यस्तः−निरु० २।१२। ददानः (त्मना) अ० ५।१२।१०। आत्मना। आत्मबलेन (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (अग्निः) विद्वान् (हव्यम्) ग्राह्यं पदार्थम् (शमिता) अ० ५।१२।१०। शान्तीकरः (स्वदयतु) स्वादु करोतु ॥

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    विषय

    देवों के लिए दान व यज्ञ

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु धन प्राप्त कराते हैं। धन प्रास कराके स्तोता को प्रेरणा देते हैं कि हे वनस्पते-सम्भजनीय धन के रक्षक [Trustee]![धन तो प्रभु का है, तो उसका रक्षक है], स्तोत: ! तु देवेभ्यः त्मना रराण: देवों के लिए स्वयं इस धन को देता हुआ अवसूज-इस धन के बन्धन को छोड़। दान ही तुझे इस धन के बन्धन से मुक्त करेगा। २. साथ ही शमिता अग्नि:-सब रोगों को शान्त करनेवाला यह यज्ञ का अग्नि हव्यं स्वदयतु-हव्य पदार्थों का स्वाद ले, अर्थात् तू धन का विनियोग यज्ञों में कर । ये यज्ञ तुझे नीरोग भी बनाएँगे और धन का बन्धन भी छूटेगा।

    भावार्थ

    यदि हम धनार्जन करके इस धन को देवों के लिए स्वयं देते रहेंगे और इस धन द्वारा यज्ञों को करते रहेंगे तो धन के बन्धन में न फैंसेंगे।

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    भाषार्थ

    (वनस्पते) हे वनस्पति ! (रराणः) इध्म प्रदान करता हुआ तु (अव सृज) इध्म का सर्जन कर, उसे उत्पन्न कर। (अग्निः) यज्ञियाग्नि (त्मना) निज स्वरूप द्वारा (देवेभ्यः) विद्वानों तथा यज्ञकर्ताओं के लिए (हव्यम्) अदनयोग्य अन्न को (स्वदयतु) स्वादुरूप में परिपक्व करे, (शमिता) इस प्रकार उन्हें शान्ति प्रदान करे ।

    टिप्पणी

    [रराणः=रा दाने (अदादि:); रा+ कानच्। हव्यम्=हु अदने (जुहोत्यादिः)। कविता में वनस्पति को सम्बोधित किया है, परन्तु वैदिक दृष्टि से वनस्पतियां भी प्राणी हैं, स्थावर-प्राणी। वनस्पतियां भी जीवात्माओं के शरीररूप है, परन्तु हैं "अन्तःसंज्ञा और सुख-दुःख से विवर्जित।" यथा "अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखविवर्जिताः" (मनु०)। तथा "अस्थुर्वृक्षा ऊर्ध्वस्वप्नाः" (अथर्व० ६।४४।१) तथा "ओषधिषु प्रतितिष्ठा शरीर" (अथर्व० १८।२।७)। वृक्ष हैं 'अन्तःसंज्ञा:' परन्तु 'सुखदुःख से रहित' जैसे कि स्वाप्नौषध द्वारा मनुष्य को 'अन्तःसंज्ञ' कर शल्यत्रियाएंँ की जाती हैं।]

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    विषय

    ब्रह्मोपासना।

    भावार्थ

    आत्मा का निरूपण करते हैं। हे वनस्पते ! इन्द्रियों के परिपालक ! तू (रराणः) रमण करता हुआ (त्मना) स्वयं (अव सृज) ईश्वर की ओर गति कर। और (शमिता) सबका कल्याणकारी, शान्तिदायक प्रभु (अग्निः) वह प्रकाशस्वरूप (देवेभ्यः) समस्त ज्ञानी पुरुषों या इन्द्रियों के लिये (हव्यं) उपादेय, भोग्य पदार्थ या मोक्ष सुख का (स्वदयतु) आस्वादन करावे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अग्निर्देवता। १ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। २ द्विपदा साम्नी भुरिगनुष्टुप्। ३ द्विपदा आर्ची बृहती। ४ द्विपदा साम्नी भुरिक् बृहती। ५ द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप्। ६ द्विपदा विराड् नाम गायत्री। ७ द्विपदा साम्नी बृहती। २-७ एकावसानाः। ८ संस्तार पंक्तिः। ९ षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा परातिजगती। १०-१२ परोष्णिहः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Agni and Dynamics of Yajna

    Meaning

    O Vanaspati, lord of nature, protector and promoter of forest, botanist of high order, happy and enthusiastic at heart, with your very soul create and release for the devas, divinities of nature and nobilities of humanity, all dedicated to yajna, holy and refined materials for inputs of the yajna of development, and Agni, enlightened spirit of the nation, lover of peace and stability, would be delighted with the state of society and its prosperity.

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    Translation

    O Lord of forests (vanaspati), rejoicing by yourself among the bounties of Nature, grant us those sacrificial provisions, which the soothing fire makes tasty. (Also Yv. XXVII.21) (vanaspati)

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    Translation

    Let this Vanaspati (the fire of yajna) which is given of various things by nature give us the profits of the yajna. Let this peaceful fire with its power consume the oblation offered for the other yajna-devas.

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    Translation

    O soul, the lord of organs, rejoicing, with thy spiritual force, go untoGod. May the peace bestowing God, make all learned persons, enjoy the blissof salvation!

    Footnote

    See Yajur, 27-21; Rig, 1-142-11.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(वनस्पते) वनस्य सम्भजनीयस्य शास्त्रस्य पालकः−इति दयानन्दभाष्ये, यजु० २७।२१। (अव सृज) दानं कुरु (रराणः) रा दाने−कानच्। रराणो रातिरभ्यस्तः−निरु० २।१२। ददानः (त्मना) अ० ५।१२।१०। आत्मना। आत्मबलेन (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (अग्निः) विद्वान् (हव्यम्) ग्राह्यं पदार्थम् (शमिता) अ० ५।१२।१०। शान्तीकरः (स्वदयतु) स्वादु करोतु ॥

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