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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 8
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - इळा, सरस्वती, भारती छन्दः - संस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - अग्नि सूक्त
    44

    उ॑रु॒व्यच॑सा॒ग्नेर्धाम्ना॒ पत्य॑माने। आ सु॒ष्वय॑न्ती यज॒ते उ॒पाके॑ उ॒षासा॒नक्तेमं य॒ज्ञम॑वतामध्व॒रं नः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒रु॒ऽव्यच॑सा । अ॒ग्ने: । धाम्ना॑ । पत्य॑माने॒ इति॑ । आ । सु॒स्वय॑न्ती॒ इति॑ । य॒ज॒ते॒ इति॑ । उ॒पाके॒ इति॑ । उ॒षसा॒नक्ता॑ । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । अ॒व॒ता॒म् । अ॒ध्व॒रम् । न॒: ॥२७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उरुव्यचसाग्नेर्धाम्ना पत्यमाने। आ सुष्वयन्ती यजते उपाके उषासानक्तेमं यज्ञमवतामध्वरं नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उरुऽव्यचसा । अग्ने: । धाम्ना । पत्यमाने इति । आ । सुस्वयन्ती इति । यजते इति । उपाके इति । उषसानक्ता । इमम् । यज्ञम् । अवताम् । अध्वरम् । न: ॥२७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुरुषार्थ का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्नेः) सर्वव्यापक परमेश्वर के (उरु-व्यचसा) दूर-दूर तक व्यापक (धाम्ना) तेज से (पत्यमाने) ऐश्वर्य करती हुई (सुष्वयन्ती=सुसु अयन्त्यौ) अति सुन्दरता से चलती हुयी, (यजते) संगतियोग्य, (उपाके) पास-पास रहनेवाली (उषासानक्ता) रात और प्रभात वेलायें [दिन और रात] (नः) हमारे (इमम्) इस (अध्वरम्) सन्मार्गवाले (यज्ञम्) समाज को (आ अवताम्) आती रहें ॥८॥

    भावार्थ

    मनुष्य धर्ममार्ग में चलकर दिन-रात उन्नति करते रहें ॥८॥ मन्त्र का मिलान अ० ५।१२।६। से करो ॥

    टिप्पणी

    ८−(उरुव्यचसा) वि+अञ्चु गतौ−असुन्। बहुव्यापकेन (अग्नेः) सर्वव्यापकस्य परमेश्वरस्य (धाम्ना) तेजसा (पत्यमाने) पत ऐश्वर्ये−शानच्। ऐश्वर्यं कुर्वाणे (आ सुष्वयन्ती... उषासानक्ता) इति गतम्−अ० ५।१२।६। (आ) क्रियायोगे (सुष्वयन्ती) अत्यन्तं सुष्ठु अयन्त्यौ (यजते) संगन्तव्ये (उपाके) सन्निहिते (उषासानक्ता) अहोरात्रे (इमम्) (यज्ञम्) यष्टव्यं संगन्तव्यं समाजम् (आ अवताम्) अव रक्षणगत्यादिषु। आगच्छताम् (अध्वरम्) म० ५। सन्मार्गवन्तम् (नः) अस्माकम् ॥

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    विषय

    यज्ञ-तत्परता

    पदार्थ

    १. (अग्ने:) = उस महान् अग्नि प्रभु के (उरुव्यचसा धाम्ना) = अतिशयेन विस्तारवाले तेज से (पत्यमाने) = [पत ऐश्वर्य] ऐश्वर्यवाले होते हुए (आसु सु अयन्ती) = समन्तात् सुन्दरता से गति करते हुए (यजते) = परस्पर सङ्गत (उपाके) = एक-दूसरे के समीप प्राप्त होते हुए (उषासानक्ता) = दिन-रात (न:) = हमारे (इमम्) = इस (अध्वरम्) = हिंसारहित (यज्ञम् अवतम्) = यज का रक्षण करें, अर्थात् हम सदा यज्ञों को करनेवाले बनें।

    भावार्थ

    प्रभु के तेज से तेजस्वी होते हुए हम दिन-रात यज्ञों में व्याप्त रहें।

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    भाषार्थ

    (उरुव्यचसा१= उरुव्यचसः [काठक ]) ये विस्तारवाले (अग्नेः) महानग्नि-परमेश्वर के (धाम्ना) तेज अर्थात् शक्ति द्वारा ( पत्यमाने) [आकाश में ] उड़ती हुई, (आ सुष्वयन्ती) सबको प्रेरित करती हुई, (यजते) यज्ञकर्म में सहायिका, (उपाके) समीप प्राप्त (उषासानक्ता) उषा और रात्रि [सायंकाल] (न:) हमारे ( इमं यज्ञम् ) इस यज्ञ की, ( अध्वरम्) जोकि हिंसारहित है, (अवताम् ) रक्षा करें।

    टिप्पणी

    [उपासानक्ता =उषा-काल और सायंकाल। इन दो सन्धिकालों में सन्ध्यायज्ञ और अग्निहोत्र किये जाते हैं, ये दोनों अध्वर हैं, हिंसारहित हैं, अथवा हमारे शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा करके हमें हिंसा से बचाते हैं। उपाके=उपगते, हमारे समीप प्राप्त, अर्थात् कालचक्र की गति द्वारा ये दो काल जब हमारे अभिमुख हों। आसुष्वयन्ती =आ, सु, षू ( प्रेरणे) हमें यज्ञकर्म में प्रेरित करती हुईं उषासानक्ता।] [१. अथवा 'उरुव्यचसा' विशेषण है, 'उषासानक्ता' का।]

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    विषय

    ब्रह्मोपासना।

    भावार्थ

    (अग्नेः) उस प्रकाशमान् सूर्य के समान प्रभु के (उरुव्यचसा) विशाल, लोकों में व्यापक (धाम्ना) तेज से (पत्यमाने) स्वतः ऐश्वर्यवान् होती हुई (उपाके) समीप २ (यजते) परस्पर संगत होकर (आ सु-सु-अयन्ती) सुखपूर्वक आती हुई (उषासा-नक्ता) उषा और रात्रि दोनों देवी (नः) हमारे (अध्वरं) अविनाशी (इमं) इस प्रत्यक्ष (यज्ञं) यज्ञ-आत्मा की (अवताम्) रक्षा करें। समानार्थ ऋचा देखो ऋ० १। १४२। ७॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अग्निर्देवता। १ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। २ द्विपदा साम्नी भुरिगनुष्टुप्। ३ द्विपदा आर्ची बृहती। ४ द्विपदा साम्नी भुरिक् बृहती। ५ द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप्। ६ द्विपदा विराड् नाम गायत्री। ७ द्विपदा साम्नी बृहती। २-७ एकावसानाः। ८ संस्तार पंक्तिः। ९ षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा परातिजगती। १०-१२ परोष्णिहः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Agni and Dynamics of Yajna

    Meaning

    Receiving their light, power and parental efficacy for us from the wide expansive splendour of divine Agni, the night and dawn, blissful sisterly divinities moving on together, may, we pray, protect and promote this our yajna of love and non-violent advancement of humanity and the environment.

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    Translation

    May dawn and night, ruling from the far extending realm of the adorable Lord, coming towards us, accordant with each other; keeping close, protect this our sacrifice which is free from violence. (Also Yv. XXVII. 16 and 17). (usasanaktà)

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    Translation

    Let the dawn and night which gains their existence and Strength from the extensive splendor of fire, which are near to each other, which are closely connected, and which come to us in their nice way, protect our this yajna which is free from all kinds of violent acts.

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    Translation

    May Dawn and Night, exalted by the vast lustre of God, united together, abiding near each other, coming joyfully, protect this immortal soul ofours.

    Footnote

    See Yajur, 27-17; Rig, 1-142-7; Atharva, 5-12-6.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(उरुव्यचसा) वि+अञ्चु गतौ−असुन्। बहुव्यापकेन (अग्नेः) सर्वव्यापकस्य परमेश्वरस्य (धाम्ना) तेजसा (पत्यमाने) पत ऐश्वर्ये−शानच्। ऐश्वर्यं कुर्वाणे (आ सुष्वयन्ती... उषासानक्ता) इति गतम्−अ० ५।१२।६। (आ) क्रियायोगे (सुष्वयन्ती) अत्यन्तं सुष्ठु अयन्त्यौ (यजते) संगन्तव्ये (उपाके) सन्निहिते (उषासानक्ता) अहोरात्रे (इमम्) (यज्ञम्) यष्टव्यं संगन्तव्यं समाजम् (आ अवताम्) अव रक्षणगत्यादिषु। आगच्छताम् (अध्वरम्) म० ५। सन्मार्गवन्तम् (नः) अस्माकम् ॥

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