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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - इळा, सरस्वती, भारती छन्दः - द्विपदार्ची बृहती सूक्तम् - अग्नि सूक्त
    49

    मध्वा॑ य॒ज्ञं न॑क्षति प्रैणा॒नो नरा॒शंसो॑ अ॒ग्निः सु॒कृद्दे॒वः स॑वि॒ता वि॒श्ववा॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मध्वा॑ । य॒ज्ञम् । न॒क्ष॒ति॒ । प्रै॒णा॒न: । नरा॒शंस॑: । अ॒ग्नि: । सु॒ऽकृत् । दे॒व: । स॒वि॒ता । वि॒श्वऽवा॑र: ॥२७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मध्वा यज्ञं नक्षति प्रैणानो नराशंसो अग्निः सुकृद्देवः सविता विश्ववारः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मध्वा । यज्ञम् । नक्षति । प्रैणान: । नराशंस: । अग्नि: । सुऽकृत् । देव: । सविता । विश्वऽवार: ॥२७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुरुषार्थ का उपदेश।

    पदार्थ

    (नराशंसः) मनुष्यों में प्रशंसावाला, (सुकृत्) उत्तम कर्म करनेवाला, (देवः) व्यवहार में चतुर, (सविता) ऐश्वर्यवाला (विश्ववारः) सब से अङ्गीकार करने योग्य (अग्निः) विद्वान् पुरुष (मध्वा) ज्ञान से (यज्ञम्) समाज को (प्रैणानः) आगे बढ़ाता हुआ (नक्षति) चलता है ॥३॥

    भावार्थ

    विद्वान् पुरुषार्थी मनुष्य विद्याबल से संसार की उन्नति करता है ॥३॥ प्रैणानः) पद के स्थान पर यजुर्वेद। २७।१३। में [प्रीणानः] है ॥

    टिप्पणी

    ३−(मध्वा) म० २। ज्ञानेन (यज्ञम्) समाजम् (नक्षति) गच्छति (प्रैणानः) प्रैणृ गतिप्रेरणश्लेषणेषु−शानच्, आत्मनेपदं छान्दसम्। प्रेरयन् (नराशंसः) नर+आङ्+शंसु स्तुतौ−अ, टाप्। नरेषु आशंसा प्रशंसा यस्य सः। नराशंसो यज्ञ इति कात्थक्यो नरा अस्मिन्नासीनाः शंसन्ति। अग्निरिति शाकपूणिर्नरैः प्रशस्यो भवति−निरु० ८।६। (अग्निः) विद्वान् पुरुषः (सुकृत्) सुकर्मा (देवः) व्यवहर्ता (सविता) षु प्रसवैश्वर्ययोः−तृच्, अदा० सेट्। ऐश्वर्यवान् (विश्ववारः) विश्व+वृञ् वरणे−घञ्। सर्वैर्वरणीयः स्वीकरणीयः ॥

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    विषय

    सुकृत, देवः सविता

    पदार्थ

    १. (मध्वा) = माधुर्य के साथ (यहं प्रैणान:) = यज्ञ को अपने में प्रेरित करता हुआ (नक्षति) = गति करता है, (नराशंस:) = नरों का शंसनीय बनता है, (अग्नि:) = अग्रणी होता है। २. (सुकृत्) = उत्तम कर्मों को करनेवाला (देव:) = दिव्य गुणों का पुञ्ज, (सविता) = उत्पादक, निर्माण के कार्य करनेवाला, (विश्ववार:) = सब वरणीय धनोंवाला होता है।

    भावार्थ

    ब्रह्मा के जीवन में माधुर्य के साथ यज्ञ, लोकप्रियता, आगे बढ़ना, पुण्य, दिव्यता, उत्पादकता तथा सब बरणीय धनों की प्राप्ति होती है।

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    भाषार्थ

    (प्रैणानः) प्रीतिवाला, (नराशंसः ), [ उपासक] नर-नारियों द्वारा स्तुतिप्राप्त, (सुकृत्) सुकर्मा, (सविता देवः) प्रेरक परमेश्वरदेव, (विश्ववारः) तथा विश्व द्वारा वरणीय परमेश्वर, (मध्वा) मधुर सौर रश्मिसमूह के साथ (यज्ञम् नक्षति ) यज्ञ को प्राप्त होता है [यज्ञकर्म में उपस्थित होता है ।]

    टिप्पणी

    [प्रातःकाल के सन्ध्या-यज्ञ का वर्णन किया है । सन्ध्या-यज्ञ तथा अग्निहोत्र में परमेश्वर, मधुर अर्थात् प्रातःकाल की माधुर्यमयी सूर्यरश्मियों के संग, इन यज्ञों में उपस्थित होता है। नक्षति गतिकर्मा; तथा व्याप्तिकर्मा (निघं० २।१४; २।१८)। प्रैणानः= प्रेम कुर्वेन् यथा प्रेणा= प्रेम्णा, (ऋ० १०।७१।१)। मध्वा=मधुरूप रश्मियाँ (छान्दोग्य उप० अ० ३। तथा ४।५)।] प्रेणानः= प्री (क्विप, चित् ) + णीञ् ( प्रापणे + शानच, चित् ), डित्त्वात् टिलोपः । प्री= प्रीङ् प्रीणने (दिवादिः); प्रीञ् तर्पणे (क्र्यादिः) तथा तर्पणे (चुरादिः)। अतः प्रैणानः= प्रीणन अर्थात् प्रसन्नता; और तर्पण अर्थात् तृप्ति प्राप्त करानेवाला परमेश्वर ।]

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    विषय

    ब्रह्मोपासना।

    भावार्थ

    (नराशंसः) समस्त पुरुषों, समस्त नेताओं = विद्वानों से, प्रशंसा करने योग्य, सर्वस्तुस्त्य (अग्निः) प्रकाशस्वरूप (देवः) प्रभु (सविता) सब का प्रेरक और उत्पादक होने से (विश्व-वारः) समस्त पुरुषों से वरण करने योग्य है। वही (प्रैणानः) सबको प्रेरित या तृप्त करता हुआ (यज्ञं) यज्ञ रूप आत्मा को या समस्त भूतसर्ग को (मध्वा) ज्ञान और आनन्द, अमृत से (नक्षति) व्याप्त करता है। इसी अर्थवाली ऋचा देखो ऋ० ६। १४२। ३॥ ‘शुचिः पावको अद्भुतो मध्वा यज्ञं मिमिक्षति। नराशंसस्त्रिदिवो देवो देवेषु यज्ञियः॥’

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अग्निर्देवता। १ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। २ द्विपदा साम्नी भुरिगनुष्टुप्। ३ द्विपदा आर्ची बृहती। ४ द्विपदा साम्नी भुरिक् बृहती। ५ द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप्। ६ द्विपदा विराड् नाम गायत्री। ७ द्विपदा साम्नी बृहती। २-७ एकावसानाः। ८ संस्तार पंक्तिः। ९ षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा परातिजगती। १०-१२ परोष्णिहः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Agni and Dynamics of Yajna

    Meaning

    Self-refulgent Agni, admired and adored by humanity, energises, advances and beautifies yajna and yajnic operations of human karma with honey sweets of beauty and dignity. Noble performer, refulgent illuminator, creative inspirer, Agni is the universal choice of human love and exaltation.

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    Translation

    The adorable Lord, praised by men, performer of righteous deeds, bounteous, the inspirer, and the bestower of grace on all, being pleased, fills the sacrifice with sweetness. (Also Yv. XXVII.13) (Narasamsa)

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    Translation

    This fire is praised by the man of science, it is the means to perform good deeds, it creates heat, stability etc in various objects, it is the element which is used by various men in different ways, it wonderous and mighty. Let it operate its activities accomplishing our yajnas with the things sweet and tasty like honey etc.

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    Translation

    Refulgent God, praised by mankind, the Doer of nice deeds, the Creator,Acceptable to all, pervades the universe exalting the soul with knowledge.

    Footnote

    See Yajur, 27-13.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(मध्वा) म० २। ज्ञानेन (यज्ञम्) समाजम् (नक्षति) गच्छति (प्रैणानः) प्रैणृ गतिप्रेरणश्लेषणेषु−शानच्, आत्मनेपदं छान्दसम्। प्रेरयन् (नराशंसः) नर+आङ्+शंसु स्तुतौ−अ, टाप्। नरेषु आशंसा प्रशंसा यस्य सः। नराशंसो यज्ञ इति कात्थक्यो नरा अस्मिन्नासीनाः शंसन्ति। अग्निरिति शाकपूणिर्नरैः प्रशस्यो भवति−निरु० ८।६। (अग्निः) विद्वान् पुरुषः (सुकृत्) सुकर्मा (देवः) व्यवहर्ता (सविता) षु प्रसवैश्वर्ययोः−तृच्, अदा० सेट्। ऐश्वर्यवान् (विश्ववारः) विश्व+वृञ् वरणे−घञ्। सर्वैर्वरणीयः स्वीकरणीयः ॥

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