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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - इळा, सरस्वती, भारती छन्दः - द्विपदा साम्नी भुरिग्बृहती सूक्तम् - अग्नि सूक्त
    50

    अच्छा॒यमे॑ति॒ शव॑सा घृ॒ता चि॒दीडा॑नो॒ वह्नि॒र्नम॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छ॑ । अ॒यम् । ए॒ति॒। शव॑सा । घृ॒ता । चि॒त् । ईडा॑न: । वह्नि॑ । नम॑सा ॥२७.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छायमेति शवसा घृता चिदीडानो वह्निर्नमसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छ । अयम् । एति। शवसा । घृता । चित् । ईडान: । वह्नि । नमसा ॥२७.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुरुषार्थ का उपदेश।

    पदार्थ

    (अयम्) यह [शुभ गुणों की] (ईडानः) स्तुति करता हुआ (वह्निः) निर्वाह करनेवाला पुरुष (चित्) ही (शवसा) बल, (घृता) जल और (नमसा) अन्न के साथ (अच्छ) अच्छे प्रकार (एति) चलता है ॥४॥

    भावार्थ

    विद्वान् पुरुष सब का बल और धन बढ़ाता हुआ कीर्ति पाता है ॥४॥ (घृता) के स्थान पर यजुर्वेद, २७।१४ में [घृतेन] है ॥

    टिप्पणी

    ४−(अच्छ) सम्यक्। अभिमुखम्। अच्छाभेराप्तुमिति शाकपूणिः−निरु० ५।२८। (अयम्) प्रसिद्धः (एति) गच्छति (शवसा) बलेन (घृता) घृतेन, उदकेन−निघ० १।१२। (चित्) निश्चयेन (ईडानः) शुभगुणान् स्तुवन् (वह्निः) वहिश्रिश्रुयु०। उ० ४।५१। इति वह प्रापणे−नि। कार्यनिर्वाहकः। वह्नयो वोढारः−निरु० ८।३। (नमसा) अन्नेन−निघ० २।७ ॥

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    विषय

    शवसा, घृता, नमसा

    पदार्थ

    १. (अयम्) = यह ब्रह्मा (शवसा) = बल से तथा (घृता) = ज्ञान-दीप्ति से (चित्) = निश्चयपूर्वक (ईडानः) = स्तुति करता हुआ तथा (नमसा वह्निः) = नमन के साथ सब कर्त्तव्यकर्मों का वहन करता हुआ (अच्छ एति) = प्रभु की ओर गति करता है।

    भावार्थ

    ब्रह्मा वह है, जिसके शरीर में बल है [शवस्], मस्तिष्क में ज्ञानदीति है [घृत] तथा मन में निरभिमानता है [नमस्]। इनसे ही यह प्रभु का पूजन करता है और उसे प्राप्त करता है।

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    भाषार्थ

    (चित्) चित्-स्वरूप, (वह्वि:) संसार का वहन करनेवाला ( अयम्) यह परमेश्वर, (नमसा) नमस्कार द्वारा (ईडानः) स्तुत्य हुआ, (शवसा) बल के साथ (चृता) और दीप्ति के साथ, (अच्छा) हमारे अभिमुख (एति) आता है।

    टिप्पणी

    [घृता= घृ (क्षरणदीप्त्योः जुहोत्यादिः) + [क्विप्]+तुक्, तृतीयैकवचन।]

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    विषय

    ब्रह्मोपासना।

    भावार्थ

    (शवसा) ज्ञान, बल से (नमसा) और भक्ति से (ईडानः) स्तुति करता हुआ (वह्निः) यज्ञ का निर्वाहक (अयम्) यह अध्वर्यु अथवा ज्ञान-यज्ञ का सम्पादक योगी (अच्छा) भली प्रकार उस (घृता चित्) प्रकाशमय प्रभु को (एति) प्राप्त होता है। समानार्थ ऋचा देखो ऋ० १। १४२। ४ ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अग्निर्देवता। १ बृहतीगर्भा त्रिष्टुप्। २ द्विपदा साम्नी भुरिगनुष्टुप्। ३ द्विपदा आर्ची बृहती। ४ द्विपदा साम्नी भुरिक् बृहती। ५ द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप्। ६ द्विपदा विराड् नाम गायत्री। ७ द्विपदा साम्नी बृहती। २-७ एकावसानाः। ८ संस्तार पंक्तिः। ९ षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा परातिजगती। १०-१२ परोष्णिहः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Agni and Dynamics of Yajna

    Meaning

    This Agni, carrier and advancer of yajna, loved, adored and served with ghrta, yajnic food and devotion, goes forward with full power and glory of light.

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    Translation

    Having been adored with purified butter of homage, He comes hither well with might, the supporter of all (vahni). (Also Yv. XXVII.14) (Ida)

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    Translation

    This fire very nicely serves its purpose in the yajna, applied with Vedmantras, with oblation of grain, ghee and other cerial preparation.

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    Translation

    This yogi, the performer of the Yajna of life, nicely attains to the Refulgent. God, praising Him with knowledge and devotion.

    Footnote

    See Yajur, 27-14, and Rig, 1-142-5.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(अच्छ) सम्यक्। अभिमुखम्। अच्छाभेराप्तुमिति शाकपूणिः−निरु० ५।२८। (अयम्) प्रसिद्धः (एति) गच्छति (शवसा) बलेन (घृता) घृतेन, उदकेन−निघ० १।१२। (चित्) निश्चयेन (ईडानः) शुभगुणान् स्तुवन् (वह्निः) वहिश्रिश्रुयु०। उ० ४।५१। इति वह प्रापणे−नि। कार्यनिर्वाहकः। वह्नयो वोढारः−निरु० ८।३। (नमसा) अन्नेन−निघ० २।७ ॥

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