अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विजयप्रार्थना सूक्त
ममा॑ग्ने॒ वर्चो॑ विह॒वेष्व॑स्तु व॒यं त्वेन्धा॑नास्त॒न्वं॑ पुषेम। मह्यं॑ नमन्तां प्र॒दिश॒श्चत॑स्र॒स्त्वयाध्य॑क्षेण॒ पृत॑ना जयेम ॥
स्वर सहित पद पाठमम॑ । अ॒ग्ने॒ । वर्च॑: । वि॒ऽह॒वेषु॑ । अ॒स्तु॒ । व॒यम् । त्वा॒ । इन्धा॑न: । त॒न्व᳡म् । पु॒षे॒म॒ ।मह्य॑म् । न॒म॒न्ता॒म् । प्र॒ऽदिश॑:।चत॑स्र:। त्वया॑ । अधि॑ऽअक्षेण । पृत॑ना: । ज॒ये॒म॒ ॥३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ममाग्ने वर्चो विहवेष्वस्तु वयं त्वेन्धानास्तन्वं पुषेम। मह्यं नमन्तां प्रदिशश्चतस्रस्त्वयाध्यक्षेण पृतना जयेम ॥
स्वर रहित पद पाठमम । अग्ने । वर्च: । विऽहवेषु । अस्तु । वयम् । त्वा । इन्धान: । तन्वम् । पुषेम ।मह्यम् । नमन्ताम् । प्रऽदिश:।चतस्र:। त्वया । अधिऽअक्षेण । पृतना: । जयेम ॥३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
विषय - चतुर्दिग् विजय
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (विहवेषु) = जीवन-संग्रामों में (मम वर्चः अस्तु) = मुझमें वर्चस् हो। इस वर्चस् के द्वारा मैं शत्रुओं को जीतनेवाला बनूं। (वयम्) = हम (त्वा इन्धाना:) = आपको अपने हृदयों से दीस करते हुए (तन्वं पुषेम) = अपने शरीर का उचित पोषण करें। २. मेरी शक्ति इतनी बढ़े कि (चतस्त्र: प्रदिश:) = चारों प्रकृष्ट दिशाएँ (मह्यम्) = मेरे लिए (नमन्ताम्) = नत हो जाएँ। मैं चारों दिशाओं का विजय करनेवाला बनूं। हे प्रभो! (त्वया अध्यक्षेण) = आप अध्यक्ष हों और हम आपकी अध्यक्षता से शक्ति-सम्पन्न होकर (पृतना:) = सब संग्रामों को (जयेम) = जीतनेवाले हों। प्राची दिक का अधिपति 'इन्द्र' बनकर मैं काम को पराजित करूँ। दक्षिणा दिक् का अधिपति 'यम' बनकर मैं क्रोध को जीतूं। प्रतीची दिक् का अधिपति 'वरुण' बनकर मैं लोभ का निवारण करूँ और उदीची दिक् का अधिपति "सोम' बनकर सब दुर्गणों से ऊपर उठ जाऊँ।
भावार्थ -
हम प्रभु-उपासना करते हुए प्रभु की अध्यक्षता में सब संग्रामों का विजय करें।
विशेष -
हम प्रभु-उपासना करते हुए प्रभु की अध्यक्षता में सब संग्रामों का विजय करें।