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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 3/ मन्त्र 9
    सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विजयप्रार्थना सूक्त

    धा॒ता वि॑धा॒ता भुव॑नस्य॒ यस्पति॑र्दे॒वः स॑वि॒ताभि॑मातिषा॒हः। आ॑दि॒त्या रु॒द्रा अ॒श्विनो॒भा दे॒वाः पा॑न्तु॒ यज॑मानं निरृ॒थात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धा॒ता । वि॒ऽधा॒ता । भुव॑नस्य । य: । पति॑: । दे॒व: । स॒वि॒ता । अ॒भि॒मा॒ति॒ऽस॒ह:। आ॒दि॒त्या: । रु॒द्रा: । अ॒श्विना॑ । उ॒भा । दे॒वा: । पा॒न्तु॒ । यज॑मानम् । नि॒:ऽऋ॒थात् ॥३.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धाता विधाता भुवनस्य यस्पतिर्देवः सविताभिमातिषाहः। आदित्या रुद्रा अश्विनोभा देवाः पान्तु यजमानं निरृथात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धाता । विऽधाता । भुवनस्य । य: । पति: । देव: । सविता । अभिमातिऽसह:। आदित्या: । रुद्रा: । अश्विना । उभा । देवा: । पान्तु । यजमानम् । नि:ऽऋथात् ॥३.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 9

    पदार्थ -

    १. (धाता) = वह धारण करनेवाला (विधाता) = सृष्टि का रचयिता (सविता देव:) = सबका प्रेरक प्रकाशमय प्रभु (अभिमातिषाहः) = हमारे सब अभिमानी शत्रुओं का पराभव करनेवाले हैं। प्रभु वे हैं, (यः) = जो (भुवनस्य पतिः) = सारे ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। सारे ब्रह्माण्ड का धारण व रक्षण करनेवाले वे प्रभु हमारे शत्रुओं का विनाश करके हमारा भी धारण करते हैं । २. (आदित्या:) = आयुष्य का आदान करनेवाले ये बारह मास (रुद्रा:) = शरीरस्थ प्राण [रोगों को दूर भगानेवाले ये प्राण] (उभा अश्विना) = दोनों धुलोक व पृथिवीलोक [इमे ह वै द्यावापृथिवी प्रत्यक्षमश्विनौ-शत० ४.२.५.१६] तथा (देवा:) = अन्य सब प्राकृतिक शक्तियों (यजमानम्) = इस यज्ञशील पुरुष को (निर्ऋथात्) = दुर्गति व विनाश से पान्तु-बचाएँ।

    भावार्थ -

    उत्तम प्रेरणा प्राप्त करते हुए प्रभु हम यज्ञशील पुरुषों को यज्ञों के कर्तृत्व के अहंकार से ऊपर उठाएं। प्रभु का बनाया हुआ यह सारा संसार हमें विनाश से बचाए।

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