अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 3/ मन्त्र 11
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - आदित्यगणः, रुद्रगणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विजयप्रार्थना सूक्त
अ॒र्वाञ्च॒मिन्द्र॑म॒मुतो॑ हवामहे॒ यो गो॒जिद्ध॑न॒जिद॑श्व॒जिद्यः। इ॒मं नो॑ य॒ज्ञं वि॑ह॒वे शृ॑णोत्व॒स्माक॑मभूर्हर्यश्व मे॒दी ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्वाञ्च॑म् । इन्द्र॑म् । अ॒मुत: । ह॒वा॒म॒हे॒ । य: । गो॒ऽजित् । ध॒न॒ऽजित् । अ॒श्व॒ऽजित् । य: । इ॒मम् । न॒: । य॒ज्ञम् । वि॒ऽह॒वे । शृ॒णो॒तु॒ । अ॒स्माक॑म् । अ॒भू॒: । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । मे॒दी ॥३.११॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वाञ्चमिन्द्रममुतो हवामहे यो गोजिद्धनजिदश्वजिद्यः। इमं नो यज्ञं विहवे शृणोत्वस्माकमभूर्हर्यश्व मेदी ॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाञ्चम् । इन्द्रम् । अमुत: । हवामहे । य: । गोऽजित् । धनऽजित् । अश्वऽजित् । य: । इमम् । न: । यज्ञम् । विऽहवे । शृणोतु । अस्माकम् । अभू: । हरिऽअश्व । मेदी ॥३.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 11
विषय - गोजित, धनजित, अश्वजित्
पदार्थ -
१. सामान्यत: हम प्रभु से दूर और दूर ही रहते हैं। प्रभु से दूर रहना ही हमारी विषयासक्ति व विनाश का कारण हो जाता है, अत: (अमुत:) = दूर प्रदेश से (इन्द्रम्) = उस शत्रु-संहारक प्रभु को (अर्वाञ्चम्) = अपने अन्दर (हवामहे) = पुकारते हैं (यः) = जो प्रभु (गोवित्) = हमारे लिए ज्ञानेन्द्रियों का विजय करनेवाले हैं। इनके विजय के द्वारा वे प्रभु हमारे लिए (धनजित्) = आवश्यक सब धनों तथा ज्ञान का विजय करते हैं, (य:) = जो प्रभु (अश्वजित्) = हमारे लिए कर्मों में व्यास होनेवाली निरन्तर यज्ञों में व्याप्त रहनेवाली कर्मेन्द्रियों का विजय करते हैं। २. वे प्रभु (विहवे) = संग्रामों में (न:) = हमारे (इमं यज्ञम्) = इस पूजन को (शृणोतु) = सुनें। प्रभु को ही तो इन संग्रामों में हमें विजयी बनाना है। हे (हर्यश्व) = दु:खों का हरण करनेवाले, इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले प्रभो! आप (अस्माकम्) = हमारे (मेदी अभूः) = स्नेह करनेवाले है। आप ही वस्तुतः हमारा हित करनेवाले हैं।
भावार्थ -
हम प्रभु को पुकारते हैं। प्रभु हमें उत्तम ज्ञानेन्द्रियों-ज्ञानधन व कर्मेन्द्रियाँ प्राप्त कराते हैं। ये प्रभु ही हमें संग्रामों में विजयी बनाते हैं। प्रभु ही हमारे स्नेही हैं।
विशेष -
उत्तम ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान-परिपक्व होकर यह 'भृग बनता है। उत्तम कर्मेन्द्रियोंवाला बनकर यह अङ्गिरा' होता है। यह 'भृग्वङ्गिराः' ही अगले सूक्त का ऋषि है। यह कुष्ठ ओषधि के प्रयोग से ज्वर आदि रोगों को नष्ट कर डालता है।