Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 102

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 102/ मन्त्र 2
    सूक्त - जमदग्नि देवता - अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अभिसांमनस्य सूक्त

    आहं खि॑दामि ते॒ मनो॑ राजा॒श्वः पृ॒ष्ट्यामि॑व। रे॒ष्मच्छि॑न्नं॒ यथा॒ तृणं॒ मयि॑ ते वेष्टतां॒ मनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒हम् । खि॒दा॒मि॒ । ते॒ । मन॑: । रा॒ज॒ऽअ॒श्व: । पृ॒ष्ट्याम्ऽइ॑व। रे॒ष्मऽछि॑न्नम् । यथा॑ । तृण॑म् । मयि॑ । ते॒ । वे॒ष्ट॒ता॒म् । मन॑: ॥१०२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आहं खिदामि ते मनो राजाश्वः पृष्ट्यामिव। रेष्मच्छिन्नं यथा तृणं मयि ते वेष्टतां मनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अहम् । खिदामि । ते । मन: । राजऽअश्व: । पृष्ट्याम्ऽइव। रेष्मऽछिन्नम् । यथा । तृणम् । मयि । ते । वेष्टताम् । मन: ॥१०२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 102; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (अहम्) = मैं (ते मन:) = तेरे मन को (आखिदामि) = इसप्रकार खींचता है, (इव) = जैसे (राजाश्व:) = श्रेष्ठ घोड़ा पृष्टयाम् शंकुबद्ध सम्बन्धन रज्जु को। २. (यथा रेष्माछिन्नम्) = [रेष्मा वात्या] जैसे वात्यात्मक वायु से छिन्न तृण उसके वश में हुआ-हुआ उसी में घूमता है, उसी प्रकार (ते) = तेरा (मन:) = मन (मयि वेष्टताम्) = मेरे अधीन होकर घूमनेवाला हो। तेरा मन मुझसे कभी दूर न हो।

    भावार्थ -

    जैसे श्रेष्ठ घोड़ा सम्बन्धन रजु को और बात्य तृणों को खींचता है, उसी प्रकार मैं [प्रभु] तेरे मन को अपनी ओर खींचता हूँ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top