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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 102/ मन्त्र 3
सूक्त - जमदग्नि
देवता - अश्विनौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अभिसांमनस्य सूक्त
आञ्ज॑नस्य म॒दुघ॑स्य॒ कुष्ठ॑स्य॒ नल॑दस्य च। तु॒रो भग॑स्य॒ हस्ता॑भ्यामनु॒रोध॑न॒मुद्भ॑रे ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽअञ्ज॑नस्य । म॒दुघ॑स्य । कुष्ठ॑स्य । नल॑दस्य । च॒ । तु॒र: । भग॑स्य । हस्ता॑भ्याम् । अ॒नु॒ऽरोध॑नम् । उत् । भ॒रे॒ ॥१०२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आञ्जनस्य मदुघस्य कुष्ठस्य नलदस्य च। तुरो भगस्य हस्ताभ्यामनुरोधनमुद्भरे ॥
स्वर रहित पद पाठआऽअञ्जनस्य । मदुघस्य । कुष्ठस्य । नलदस्य । च । तुर: । भगस्य । हस्ताभ्याम् । अनुऽरोधनम् । उत् । भरे ॥१०२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 102; मन्त्र » 3
विषय - आञ्जन, मधुष, कुष्ठ, नलद
पदार्थ -
१.(आञ्जनस्य) = [अञ्ज-व्यक्ति] संसार को व्यक्त करनेवाले-प्रकृति से संसार को प्रकट करनेवाले (मधुघस्य) = [मद् सेचने] आनन्द का सेचन करनेवाले, (कुष्ठस्य) = [कुष निष्कर्षे] सब बुराइयों को बाहर कर देनेवाले, जीवन को पवित्र बना देनेवाले (च) = और इसप्रकार (नलदस्य) = बन्धनों को काट देनेवाले [नल बन्धने, दो अवखण्डने], (तुर:) = [तुर्वी हिंसायाम्] सब आसुर वृत्तियों का संहार करनेवाले व (भगस्य) = ऐश्वर्य के पुज्ज प्रभु के (अनुरोधनम्) = पूजन को, पूजा द्वारा अनुकूलता को (हस्ताभ्याम्) = हार्थों से, नकि कानों से (उद्भरे) = धारण करता हूँ। २. हाथों से पूजन को धारण करने का भाव यह है कि मैं अपने कर्तव्यकर्मों के द्वारा प्रभु का पूजन करता हूँ [स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः] । गुण-कीर्तन तो श्रव्य भक्ति है। यहाँ ये कर्म आँखों से दीखते हैं। भूखे को रोटी देना, प्यासे को पानी पिलाना, रोगी का उपचार करना' प्रभु का हाथों द्वारा उपासन है। इसे करता हुआ उपासक जीवन को सद्गुणों से अलंकृत करता है[आञ्जन], जीवन को आनन्द से सिक्त करता है [मदुघ], बुराइयों को दूर करता है [कुष्ठ], अन्ततः बन्धनों को काटनेवाला होता है [नलद]। यही मार्ग है जिससे कि उपासक आसुरवृत्तियों का हिंसन करके [तुर] वास्तविक ऐश्वर्य को प्राप्त करता है [भग]।
भावार्थ -
हम कर्तव्य कर्मों के द्वारा प्रभु का पूजन करते हुए 'आञ्जन, मदुष, कुष्ठ, नलद, तुर व भग' बनें।
विशेष -
विशेष-प्रभुपूजन द्वारा सब आसुर वृत्तियों को दूर करके जीवन को उत्कृष्ट दीप्ति से युक्त करनेवाला यह 'उच्छोचन' अगले सूक्त का ऋषि-द्रष्टा है।
पञ्चदशः प्रपाठकः काम किया।