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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 109/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - भैषज्यम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पिप्पलीभैषज्य सूक्त
पि॑प्प॒ल्यः सम॑वदन्ताय॒तीर्जन॑ना॒दधि॑। यं जी॒वम॒श्नवा॑महै॒ न स रि॑ष्याति॒ पूरु॑षः ॥
स्वर सहित पद पाठपि॒प्प॒ल्य᳡: । सम् । अ॒व॒द॒न्त॒। आ॒ऽय॒ती: । जन॑नात् । अधि॑ । यम् । जी॒वम् । अ॒श्नवा॑महै । न । स: । रि॒ष्या॒ति॒ । पुरु॑ष: ॥१०९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
पिप्पल्यः समवदन्तायतीर्जननादधि। यं जीवमश्नवामहै न स रिष्याति पूरुषः ॥
स्वर रहित पद पाठपिप्पल्य: । सम् । अवदन्त। आऽयती: । जननात् । अधि । यम् । जीवम् । अश्नवामहै । न । स: । रिष्याति । पुरुष: ॥१०९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 109; मन्त्र » 2
विषय - पिप्पलियों का संवाद
पदार्थ -
१. (पिप्पल्य:) = पिप्पलियाँ (जननात् अधि) = जन्म से ही (आयती:) = आती हुई (सम् अवदन्त) = परस्पर बात करती हैं कि (यं जीवम्) = जिस जीव को (अश्नवामहै) = हम औषधरूपेण प्र.स होती हैं, (स:) = वह (पूरुषः) = पुरुष (न रिष्याति) = नष्ट नहीं होता-हिसित नहीं होता।
भावार्थ -
पिप्पलियाँ जब अंकुरित होकर भूमि से ऊपर आती है तब मानो परस्पर बात करती हैं कि हमें औषधरूपेण प्राप्त करनेवाला पुरुष कभी हिंसित नहीं होता।