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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 138

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 138/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - नितत्नीवनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - क्लीबत्व सूक्त

    ये ते॑ ना॒ड्यौ दे॒वकृ॑ते॒ ययो॒स्तिष्ठ॑ति॒ वृष्ण्य॑म्। ते ते॑ भिनद्मि॒ शम्य॑या॒मुष्या॒ अधि॑ मु॒ष्कयोः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये इति॑ । ते॒ । ना॒ड्यौ᳡ । दे॒वकृ॑ते॒ इति॑ दे॒वऽकृ॑ते । ययो॑: । तिष्ठ॑ति । वृष्ण्य॑म् । ते इति॑ । ते॒ । भि॒न॒द्मि॒ । शम्य॑या । अ॒मुष्या॑: । अधि॑ । मु॒ष्कयो॑: ॥१३८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये ते नाड्यौ देवकृते ययोस्तिष्ठति वृष्ण्यम्। ते ते भिनद्मि शम्ययामुष्या अधि मुष्कयोः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये इति । ते । नाड्यौ । देवकृते इति देवऽकृते । ययो: । तिष्ठति । वृष्ण्यम् । ते इति । ते । भिनद्मि । शम्यया । अमुष्या: । अधि । मुष्कयो: ॥१३८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 138; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. (ये) = जो (ते) = तेरी (नाङचौ) = दो नाड़ियाँ (देवकृते) = [द्वि क्रिडायाम्-कुज हिंसायाम्] विषय क्रीड़ा के कारण हिंसित-सी हो गई है, (ययोः वृष्ण्यम् तिष्ठति) = जिनमें वीर्य की स्थिति है, (ते) = तेरी (ते) = उन हिंसित नाड़ियों को (अधिमुष्कयो:) = अण्डकोशों के ऊपर (अमुष्याः) = उस स्वस्थ नाड़ी (शम्यया) = युगकीलक-तुल्य शस्त्र के द्वारा (भिनधि) = अलग करता हूँ। इन नाड़ियों के पार्थक्य के द्वारा विषय-उन्माद को दूर करता हूँ।

    भावार्थ -

    यदि विषय-क्रीड़ा के कारण वीर्यवाहिनी नाड़ियाँ दूषित हो गई हैं, तो वैद्य उनका छेदन करके इस रोगी को विषय-उन्मादशून्य करने का प्रयत्न करे।

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