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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
सूक्त - बभ्रुपिङ्गल
देवता - बलासः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - बलासनाशन सूक्त
निर्बला॑से॒तः प्र प॑ताशु॒ङ्गः शि॑शु॒को य॑था। अथो॒ इट॑ इव हाय॒नोऽप॑ द्रा॒ह्यवी॑रहा ॥
स्वर सहित पद पाठनि: । ब॒ला॒स॒ । इ॒त: । प्र । प॒त॒ । आ॒शुं॒ग: । शि॒शु॒क: । य॒था॒ । अथो॒ इति॑ । इट॑:ऽइव । हा॒य॒न: । अप॑ । द्रा॒हि॒ । अवी॑रऽहा ॥१४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
निर्बलासेतः प्र पताशुङ्गः शिशुको यथा। अथो इट इव हायनोऽप द्राह्यवीरहा ॥
स्वर रहित पद पाठनि: । बलास । इत: । प्र । पत । आशुंग: । शिशुक: । यथा । अथो इति । इट:ऽइव । हायन: । अप । द्राहि । अवीरऽहा ॥१४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
विषय - आशुङ्गः शिशुको यथा, हायन: इट: इव
पदार्थ -
१. हे (बनास:) = क्षयरोग! तु (इतः नि: प्रपत) = यहाँ से ऐसे हट जा (यथा) = जैसे कोई (आशुङ्गः) = शीघ्र गतिवाला (शिशुक:) = हिरनौटा [हिरन-शिशु] भाग खड़ा होता है। २. (अथो) = और (हायन: इट: इव) = वार्षिक घास की भौति-जैसे प्रतिवर्ष उग आनेवाली घास चली जाती है, उसी प्रकार तु (अपद्राहि) = दूर भाग जा। (अवीरहा) = तू हमारे वीरों को नष्ट करनेवाला न हो।
भावार्थ -
क्षयरोग इसप्रकार दूर भाग जाए, जैसे एक शीघ्रगामी हिरनौटा भाग जाता है। वार्षिक घास की भाँति यह हमसे दूर हो जाए। यह हमारे वीरों को मारनेवाला न हो।
विशेष -
रोगों का उत्कर्षेण विदारण करनेवाला यह 'उद्दालक' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है।