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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
सूक्त - उद्दालक
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
उ॑त्त॒मो अ॒स्योष॑धीनां॒ तव॑ वृ॒क्षा उ॑प॒स्तयः॑। उ॑प॒स्तिर॑स्तु॒ सो॒स्माकं॒ यो अ॒स्माँ अ॑भि॒दास॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त्ऽत॒म: । अ॒सि॒ । ओष॑धीनाम् । तव॑ । वृ॒क्षा: । उ॒प॒ऽस्तय॑: । उ॒प॒ऽस्ति: । अ॒स्तु॒ । स: । अ॒स्माक॑म् । य: । अ॒स्मान् । अ॒भि॒ऽदास॑ति ॥१५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तमो अस्योषधीनां तव वृक्षा उपस्तयः। उपस्तिरस्तु सोस्माकं यो अस्माँ अभिदासति ॥
स्वर रहित पद पाठउत्ऽतम: । असि । ओषधीनाम् । तव । वृक्षा: । उपऽस्तय: । उपऽस्ति: । अस्तु । स: । अस्माकम् । य: । अस्मान् । अभिऽदासति ॥१५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
विषय - अभिदास का उपस्ति बन जाना,
पदार्थ -
१. हे प्रभो! आप (ओषधीनाम्) = दोषदाहक ओषधियों में (उत्तमः असि) = सर्वोत्तम हैं। (वृक्षा:) = दोष छेदन की कामनावाले [वृश्चनात्] सब जीव तब (उपस्तयः) = तेरे उपासक हैं। २. (य:) = जो (अस्मान् अभिदासति) = हमारा उपक्षय करता है, (स:) = वह (अस्माकम् उपस्ति: अस्तु) = हमारा अनुगामी बन जाए। आपकी कृपा से मेरे जीवन में 'काम' प्रेम बन जाए, 'क्रोध' करुणा के रूप में हो जाए और 'लोभ' का स्थान त्याग ले-ले।
भावार्थ -
प्रभु सब भवरोगों की सर्वोत्तम ओषधि हैं। दोष-छेदन की कामनावाले पुरुष प्रभु का ही उपासन करते हैं। इस उपासना से काम, क्रोध व लोभ का स्थान, प्रेम, करुणा व त्याग को मिल जाता है।
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