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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृगु देवता - यमः, निर्ऋतिः छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त

    अ॒मून्हे॒तिः प॑त॒त्रिणी॒ न्येतु॒ यदुलू॑को॒ वद॑ति मो॒घमे॒तत्। यद्वा॑ क॒पोतः॑ प॒दम॒ग्नौ कृ॒णोति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒मून् । हे॒ति: । प॒त॒त्रिणी॑ । नि । ए॒तु॒ । यत् । उलू॑क: । वद॑ति । मो॒घम् । ए॒तत् । यत् । वा॒ । क॒पोत॑: । प॒दम् । अ॒ग्नौ । कृ॒णोति॑ ॥२९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमून्हेतिः पतत्रिणी न्येतु यदुलूको वदति मोघमेतत्। यद्वा कपोतः पदमग्नौ कृणोति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमून् । हेति: । पतत्रिणी । नि । एतु । यत् । उलूक: । वदति । मोघम् । एतत् । यत् । वा । कपोत: । पदम् । अग्नौ । कृणोति ॥२९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 29; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (पतत्रिणी) = पतन की कारणभूत (हेति:) = हनन [विनाश] करनेवाली यह लोभबृति (अमून) = हमसे दूरस्थ हमारे शत्रुओं को (नि एत) = निश्चय से प्राप्त हो। लोभवृति के शिकार हमारे शत्रु ही हों। हम इस लोभवृत्ति से बचे ही रहें। २. (यत्) = जब (उलूक:) = [उच समवाये] प्रभु से समवाय वाला-स्तवन द्वारा प्रभु से मेलवाला यह स्तोता (वदति) = प्रभु के नामों का उच्चारण करता है तब (एतत् मोषम्) = सब शत्रुओं का आक्रमण व्यर्थ होता है, (यत् वा) = अथवा जब (कपोत:)= आनन्द का पोत प्रभु (आग्नौ) = प्रगतिशील जीवन में (पदम् कृणोति) = पग रखता है, अर्थात् जब कपोत इस अग्नि को प्राप्त होता है। प्रभु की उपस्थिति में उपासक 'काम, क्रोध, लोभ' आदि से आक्रान्त नहीं होता।

    भावार्थ -

    हम प्रभु से मेलवाले बनकर प्रभु के नामों का उच्चारण करें, तब वे आनन्द के पोत प्रभु हमारे हृदयों में आसीन होंगे और तब लोभ आदि शत्रुओं का हमपर आक्रमण न हो सकेगा।

     

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