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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 29/ मन्त्र 3
सूक्त - भृगु
देवता - यमः, निर्ऋतिः
छन्दः - त्र्यवसाना सप्तदा विराडष्टिः
सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
अ॑वैरह॒त्याये॒दमा प॑पत्यात्सुवी॒रता॑या इ॒दमा स॑सद्यात्। परा॑ङे॒व परा॑ वद॒ परा॑ची॒मनु॑ सं॒वत॑म्। यथा॑ य॒मस्य॑ त्वा गृ॒हेऽर॒सं प्र॑ति॒चाक॑शाना॒भूकं॑ प्रति॒चाक॑शान् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒वै॒र॒ऽह॒त्याय॑ । इ॒दम्। आ । प॒प॒त्या॒त् । सु॒ऽवी॒रता॑यै । इ॒दम् । आ । स॒स॒द्या॒त् । परा॑ङ् । ए॒व । परा॑ । व॒द॒। परा॑चीम् । अनु॑ । स॒म्ऽवत॑म् । यथा॑ । य॒मस्य॑ । त्वा॒ । गृ॒हे । अ॒र॒सम् । प्र॒ति॒ऽचाक॑शान् । आ॒भूक॑म् । प्र॒ति॒ऽचाक॑शान् ॥२९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अवैरहत्यायेदमा पपत्यात्सुवीरताया इदमा ससद्यात्। पराङेव परा वद पराचीमनु संवतम्। यथा यमस्य त्वा गृहेऽरसं प्रतिचाकशानाभूकं प्रतिचाकशान् ॥
स्वर रहित पद पाठअवैरऽहत्याय । इदम्। आ । पपत्यात् । सुऽवीरतायै । इदम् । आ । ससद्यात् । पराङ् । एव । परा । वद। पराचीम् । अनु । सम्ऽवतम् । यथा । यमस्य । त्वा । गृहे । अरसम् । प्रतिऽचाकशान् । आभूकम् । प्रतिऽचाकशान् ॥२९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 29; मन्त्र » 3
विषय - अवैरहत्याय, सुवीरतायै
पदार्थ -
१.ये कपोत [आनन्द का पोत] प्रभु (इदम्) = इस हमारे हृदय में (आपपत्यात) = प्राप्त हों, जिससे (अवैरहत्याय) = वैर-विरोध के कारण हमारी हत्या व विनाश न हो। हृदय में प्रभु की स्थिति होने पर हमारे हदय वैर-भाव से रहित होंगे। ये वैर-भाव ही हमारा विनाश का कारण बनते हैं। वे प्रभु (सुवीरतायै) = उत्तम वीरता के लिए (इदम् आससद्यात्) = हमारे हृदय में आसीन हों। हृदय में प्रभु की स्थिति हमें शक्ति-सम्पन्न बनाती है। २. हे वैर-भाव! तू (पराएव) = दूर ही जानेवाला हो। (पराची संवतम् अनु) = [परा+अञ्च, सं+वन्] उस परागतिरूप प्रभु [सा काष्ठा सा परा गतिः] को प्राप्त करानेवाली संभक्ति [सम्भजन] का लक्ष्य करके (परावद) = हमसे दूर रहकर ही बात कर । वैर हमारे समीप आनेवाला न हो। ३. (यथा) = जिससे (यमस्य गृहे) = सर्वनियन्ता प्रभु के गृह में जिस गृह में उस 'यम' का पूजन होता है, उसमें (त्वा) = हे बैर ! तुझे (अरसम्) = निर्बल व नि:सार (प्रतिचाकशान्) = देखें, (आभूकम्) = [empty, powerless] थोथा, (जर्जर) = सामर्थ्यशून्य (प्रतिचाकशान्) = देखें।
भावार्थ -
प्रभु हमें हदय में प्राप्त हों, हमारे हृदय में आसीन हों, जिससे हम वैर-भावों से विनष्ट न हो जाएँ, अपितु उत्तम वीर बनें। वैर हमसे दूर रहे। बैर रहते प्रभुपूजन थोड़े ही होता है? प्रभुपूजन होने पर वैर जर्जरीभूत हो जाता है।
विशेष -
वैर-भाव से ऊपर उठकर अपना भरण करनेवाले ये लोग 'उपरिबभ्रवः' कहलाते हैं। ये ही अगले दो सूक्तों के ऋषि हैं।