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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
सूक्त - भृगु
देवता - यमः, निर्ऋतिः
छन्दः - विराड्गायत्री
सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
यौ ते॑ दू॒तौ नि॑रृत इ॒दमे॒तोऽप्र॑हितौ॒ प्रहि॑तौ वा गृ॒हं नः॑। क॑पोतोलू॒काभ्या॒मप॑दं॒ तद॑स्तु ॥
स्वर सहित पद पाठयौ । ते॒ । दू॒तौ । नि॒:ऽऋ॒ते॒ । इ॒दम् । आ॒ऽइ॒त: । अप्र॑ऽहितौ । प्रऽहि॑तौ । वा॒ । गृ॒हम् । न॒: ।क॒पो॒त॒ऽउ॒लू॒काभ्या॑म् । अप॑दम् । तत् । अ॒स्तु॒ ॥ ॥२९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यौ ते दूतौ निरृत इदमेतोऽप्रहितौ प्रहितौ वा गृहं नः। कपोतोलूकाभ्यामपदं तदस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठयौ । ते । दूतौ । नि:ऽऋते । इदम् । आऽइत: । अप्रऽहितौ । प्रऽहितौ । वा । गृहम् । न: ।कपोतऽउलूकाभ्याम् । अपदम् । तत् । अस्तु ॥ ॥२९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
विषय - निरृति के दो दूत
पदार्थ -
१. शरीर में 'रोग' तथा मन में 'काम-क्रोध' निति [दुर्गति] के दो दूत हैं। हे निते दुर्गते! (यौ) = जो (ते) = तेरे (दूतौ) = रोग व वासनारूप दूत (अप्रहितौ) = अत्यन्त [प्र] अहितकर हैं (वा) = और (प्रहितौ) = किन्हीं कर्मफलों के रूप में भेजे हुए ये दूत (इदं नः गृहम्) = इस हमारे घर को (एत:) = प्राप्त होते है। (कपोत+उलूकाभ्याम्) = आनन्द के पोत प्रभु के द्वारा तथा प्रभु के साथ मेल करनेवाले स्तोता के द्वारा (तत्) = वह (अपदम् अस्तु) = पैर जमालेनेवाला न हो-हमारे शरीररूप गृह में रोग व वासनाएँ दृढ़मूल न हो जाएँ। २. इसका उपाय यही है कि हम उस आनन्द के पोत प्रभु से अपना मेल बनाएँ। प्रभु कपोत हैं तो मैं उलूक बनें। बस, फिर यहाँ निति के दूतों की जड़ न जम पाएगी।
भावार्थ -
प्रभु-स्मरण करते हुए हम रोगों व वासनाओं से अपने को बचा पाएँ।
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