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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - वर्चः प्राप्ति सूक्त
इन्द्रे॒मं प्र॑त॒रं कृ॑धि सजा॒ताना॑मसद्व॒शी। रा॒यस्पोषे॑ण॒ सं सृ॑ज जी॒वात॑वे ज॒रसे॑ नय ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । इ॒मम् । प्र॒ऽत॒रम् । कृ॒धि॒ । स॒ऽजा॒ताना॑म् । अ॒स॒त् । व॒शी । राय: । पोषे॑ण । सम् । सृ॒ज॒। जीवात॑वे । जरसे॑ । नय ॥५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेमं प्रतरं कृधि सजातानामसद्वशी। रायस्पोषेण सं सृज जीवातवे जरसे नय ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । इमम् । प्रऽतरम् । कृधि । सऽजातानाम् । असत् । वशी । राय: । पोषेण । सम् । सृज। जीवातवे । जरसे । नय ॥५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
विषय - जीवातवे जरसे [नय]
पदार्थ -
१. हे (इन्द्रः) = शत्रु-विद्रावक प्रभो ! (इमम्) = इस यज्ञशील पुरुष को (प्रतरं कृधि) = अधिक उत्कृष्ट बनाइए-इसे भवसागर से तर जानेवाला बनाइए। यह (सजातानाम्) = समान जन्मवालों का (वशी असत्) = वश में करनेवाला हो अथवा 'सजात' काम-क्रोध आदि भाव हैं-('इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ')। यह इनका वशीभूत करनेवाला होता है। हे इन्द्र! आप इस पुरुष को (रायस्पोषेण) = धन के पोषण से (संसृज) = संसृष्ट कीजिए तथा (जीवातवे) = दीर्घजीवन के लिए और (जरसे) = पूर्ण वृद्धावस्था के लिए अथवा स्तुति के लिए (नय) = ले-चलिए।
भावार्थ -
इन्द्र के अनुग्रह से हम उत्कृष्ट जीवनवाले, सजातों को वश में करनेवाले और धन से युक्त जीवनवाले बनें।
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