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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - अश्विनौ
छन्दः - पथ्यापङ्क्ति
सूक्तम् - अभययाचना सूक्त
तर्दा॑पते॒ वघा॑पते॒ तृष्ट॑जम्भा॒ आ शृ॑णोत मे। य आ॑र॒ण्या व्यद्व॒रा ये के च॒ स्थ व्यद्व॒रास्तान्त्सर्वा॑ञ्जम्भयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठतर्द॑ऽपते । वघा॑ऽपते । तृष्ट॑ऽजम्भा: । आ ।शृ॒णो॒त॒ । मे॒ । ये । आ॒र॒ण्या: । वि॒ऽअ॒द्व॒रा: । ये । के । च॒ । स्थ । वि॒ऽअ॒द्व॒रा: । तान् । सर्वा॑न् । ज॒म्भ॒या॒म॒सि॒ ॥५०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
तर्दापते वघापते तृष्टजम्भा आ शृणोत मे। य आरण्या व्यद्वरा ये के च स्थ व्यद्वरास्तान्त्सर्वाञ्जम्भयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठतर्दऽपते । वघाऽपते । तृष्टऽजम्भा: । आ ।शृणोत । मे । ये । आरण्या: । विऽअद्वरा: । ये । के । च । स्थ । विऽअद्वरा: । तान् । सर्वान् । जम्भयामसि ॥५०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 3
विषय - तर्दापते, बघापते
पदार्थ -
१. (तर्दापते) = हे चूहे आदि हिंसकों के स्वामिन् हे (वघापते) = [अवघ्नन्तीति वघाः] कृषिनाशक पतङ्ग आदि के स्वामिन् ! (तृष्टजम्भा:) = तीक्ष्ण दाँतोंवाले तुम मे (आशृणोत) = मेरी इस बात को सुनो। (ये) = जो तुम (आरण्या:) = जङ्गल में होनेवाले (व्यद्वरा:) = विविधरूप से यवादि को खा जानेवाले हो (च) = और (ये के) = जो कोई ग्राम्य भी (व्यद्वरा:) = विविध अदनशील प्राणी हो, (तान् सर्वान) = उन सबको (जम्भयामसि) = हम नष्ट करते हैं।
भावार्थ -
कृषिनाशक चूहों व टिड्डीदलों को समाप्त करना ही ठीक है।
विशेष -
यवादि सात्त्विक भोजनों को करता हुआ यह रागों व वासनाओं को शान्ता करता हुआ 'शन्ताति' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -