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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 1
वा॒योः पू॒तः प॒वित्रे॑ण प्र॒त्यङ्सोमो॒ अति॑ द्रु॒तः। इन्द्र॑स्य॒ युजः॒ सखा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवा॒यो: । पू॒त: । प॒वित्रे॑ण । प्र॒त्यङ् । सोम॑: । अति॑ । द्रु॒त: । इन्द्र॑स्य । युज्य॑:। सखा॑ ॥५१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वायोः पूतः पवित्रेण प्रत्यङ्सोमो अति द्रुतः। इन्द्रस्य युजः सखा ॥
स्वर रहित पद पाठवायो: । पूत: । पवित्रेण । प्रत्यङ् । सोम: । अति । द्रुत: । इन्द्रस्य । युज्य:। सखा ॥५१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 1
विषय - सोम
पदार्थ -
१. (वायो:) = [वातः प्राणो भूत्वा०] प्राणसाधना द्वारा (पूतः) = पवित्र हुआ-हुआ तथा (पवित्रेण) = [नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते] ज्ञान के द्वारा-ज्ञान साधना-निरन्तर स्वाध्याय द्वारा (प्रत्यङ्) = [प्रतिमुखम् अञ्चन्] वापस शरीर में गतिवाला होता हुआ (सोमः) = शरीर में उत्पन्न रेत:कण (अतिद्रुतः) = नाभिदेश को लाँघकर ऊर्ध्व गतिवाला होता है। सोम-रक्षण के प्रमुख साधन हैं-प्राणायाम और स्वाध्याय। २. यह सुरक्षित सोम (इन्द्रस्य) = इस जितेन्द्रिय पुरुष का (युज्यः सखा) = परमात्म-प्राप्ति का साधनभूत मित्र है। सोम-रक्षण द्वारा बुद्धि की तीव्रता होकर प्रभु का दर्शन होता है।
भावार्थ -
सोम के रक्षण व ऊर्ध्वगमन के लिए हम प्राणसाधना व स्वाध्याय में प्रवृत्त हों। जितेन्द्रिय बनकर हम सोम का रक्षण करेंगे तो यह हमारी बुद्धि को सूक्ष्म बनाकर हमें प्रभु दर्शन के योग्य बनाएगा।
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