Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 57

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
    सूक्त - शन्ताति देवता - रुद्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जलचिकित्सा सूक्त

    जा॑ला॒षेणा॒भि षि॑ञ्चत जाला॒षेणोप॑ सिञ्चत। जा॑ला॒षमु॒ग्रं भे॑ष॒जं तेन॑ नो मृड जी॒वसे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जा॒ला॒षेण॑ । अ॒भि । सि॒ञ्च॒त॒ । जा॒ला॒षेण॑ । उप॑ । सि॒ञ्च॒त॒ । जा॒ला॒षम् । उ॒ग्रम् । भे॒ष॒जम् । तेन॑ । न॒: । मृ॒ड॒ । जी॒वसे॑ ॥५७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जालाषेणाभि षिञ्चत जालाषेणोप सिञ्चत। जालाषमुग्रं भेषजं तेन नो मृड जीवसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जालाषेण । अभि । सिञ्चत । जालाषेण । उप । सिञ्चत । जालाषम् । उग्रम् । भेषजम् । तेन । न: । मृड । जीवसे ॥५७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 57; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. [जालाषमिति उदकनामसु पठितम्। अत्र च विनियोगानुसारेण गोमूत्रफेनलक्षणम्-सा०] हे परिचारको! (जालाषेण अभिषिञ्बत) = गोमूत्र-फेन से व्रण को सब ओर से धोओ [प्रक्षालयत], (जालाषेण उपसिञ्चत) = गोमूत्र-फेन से इसे उपसिक्त करो-रुई को उसमें भिगोकर व्रण पर रखो। यह (जालाषम्) = गोमूत्रफेन (उग्रं भेषजम्) = बड़ा तीक्ष्ण रोग-निवर्तक औषध है। हे इन्द्र! (तेन) = उस जालाष से (न:) = हमें (जीवसे) = दीर्घजीवन की प्राप्ति के लिए (मुड) = सखी कीजिए।

    भावार्थ -

    गोमूत्रफेन तीव्र कृमिनाशक औषध है। इसके प्रयोग से कैंसर आदि का दूर होना भी सम्भव है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top