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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 61

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 61/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - विश्वस्रष्टा सूक्त

    अ॒हं वि॑वेच पृथि॒वीमु॒त द्याम॒हमृ॒तूंर॑जनयं स॒प्त सा॒कम्। अ॒हं स॒त्यमनृ॑तं॒ यद्वदा॑म्य॒हं दैवीं॒ परि॒ वाचं॒ विश॑श्च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । वि॒वे॒च॒ । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । अ॒हम् । ऋ॒तन् । अ॒ज॒न॒य॒म् । स॒प्त । सा॒कम् । अ॒हम् । स॒त्यम् । अनृ॑तम् । यत् । वदा॑मि । अ॒हम् । दैवी॑म् । परि॑ । वाच॑म् । विश॑: । च॒॥६१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं विवेच पृथिवीमुत द्यामहमृतूंरजनयं सप्त साकम्। अहं सत्यमनृतं यद्वदाम्यहं दैवीं परि वाचं विशश्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । विवेच । पृथिवीम् । उत । द्याम् । अहम् । ऋतन् । अजनयम् । सप्त । साकम् । अहम् । सत्यम् । अनृतम् । यत् । वदामि । अहम् । दैवीम् । परि । वाचम् । विश: । च॥६१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 61; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. प्रभु कहते हैं कि (अहम्) = मैं (पृथिवीं उत द्याम्) = पृथिवी और धुलोक को (विवेच) = पृथक् पृथक् थामे रखता हूँ। (अहम्) = मैं (साकम्) = साथ-साथ ही सात (प्रातून) = सात गतिशील प्राणों को 'दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आँख व मुख' (अजनयम्) = उत्पन्न करता हूँ। २. (अहम्) = मैं (यत् सत्यम् अनृतम्) = जो सत्य और झूठ है, उसका (वदामि) = प्रतिपादन करता हूँ। 'यह सत्य है, यह अनृत है'-इसका बतानेवाला मैं ही हूँ, (च) = और (अहम्) = मैं ही (दैवीं वाचम्) = दिव्य वेदवाणी को (परिविश:) = प्रजाओं का लक्ष्य करके प्रतिपादित करता हूँ।

    भावार्थ -

    धुलोक व पृथिवीलोक का धारण करनेवाले वे प्रभु ही हैं। प्रभु ही हमें मुखादि सात प्राणों को-इन्द्रियों को प्राप्त कराते हैं। प्रभु ही हमारे लिए सत्य व असत्य का विविक्तरूप से उपदेश करते हैं। प्रभु ही सृष्टि के आरम्भ में वेदवाणी का प्रकाश करते हैं।

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