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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 61

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 61/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - विश्वस्रष्टा सूक्त

    अ॒हं ज॑जान पृथि॒वीमु॒त द्याम॒हमृ॒तूंर॑जनयं स॒प्त सिन्धू॑न्। अ॒हं स॒त्यमनृ॑तं॒ यद्वदा॑मि॒ यो अ॑ग्नीषो॒मावजु॑षे॒ सखा॑या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । ज॒जा॒न॒ । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । अ॒हम् । ऋ॒तून् । अ॒ज॒न॒य॒म् । स॒प्त । सिन्धू॑न् । अ॒हम् । स॒त्यम् । अनृ॑तम् । यत् । वदा॑मि । य: । अ॒ग्नी॒षो॒मौ । अजु॑षे । सखा॑या ॥६१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं जजान पृथिवीमुत द्यामहमृतूंरजनयं सप्त सिन्धून्। अहं सत्यमनृतं यद्वदामि यो अग्नीषोमावजुषे सखाया ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । जजान । पृथिवीम् । उत । द्याम् । अहम् । ऋतून् । अजनयम् । सप्त । सिन्धून् । अहम् । सत्यम् । अनृतम् । यत् । वदामि । य: । अग्नीषोमौ । अजुषे । सखाया ॥६१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 61; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (अहम्) = मैं (पृथिवीम्) = पृथिवी को (उत द्याम्) = और धुलोक को (जजान) = प्रादुर्भूत करता हूँ। (अहम्) = मैं ही प्राणिशरीर में (ऋतून) = गतिशील (सप्त सिन्धून्) = सात प्राण-प्रवाहों को (अजनयम्) =  उत्पन्न करता हूँ। २. (अहम्) = मैं ही (यत्) = जो (सत्यम्) = सत्य है और (अन्तम्) = जो अनुत है उसका (वदामि) = उपदेश करता हूँ, हृदयस्थ रूपेण सत्यासत्य का विवेक प्राप्त कराता हूँ। मैं वह हूँ (यः) = जोकि (सखाया) = परस्पर मित्रभूत-एक-दुसरे के पूरक होने से परस्पर सम्बद्ध (अग्रीषोमौ) = अग्नि और सोमतत्त्वों को (अजुषे) = प्रीतिपूर्वक सेवन कराता हैं, अर्थात् मेरा उपासक अपने जीवन में अग्नि और सोम इन दोनों तत्त्वों का समन्वय करनेवाला बनता है। इसी कारण उसका जीवन समत्ववाला बना रहता है।

    भावार्थ -

    ब्रह्माण्ड व पिण्ड के जनक प्रभु हमारे जीवनों में सत्यासत्य का प्रकाश करते हैं। वे अपने उपासकों में अग्नि व सोमतत्त्व को स्थापित करके उनके जीवनों को समत्वयुक्त करते हैं।

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