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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 62/ मन्त्र 1
वै॑श्वान॒रो र॒श्मिभि॑र्नः पुनातु॒ वातः॑ प्रा॒णेने॑षि॒रो नभो॑भिः। द्यावा॑पृथि॒वी पय॑सा॒ पय॑स्वती ऋ॒ताव॑री यज्ञिये नः पुनीताम् ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒र: । र॒श्मिऽभि:॑ । न॒: । पु॒ना॒तु॒ । वात॑: । प्रा॒णेन॑ । इ॒षि॒र: । नभ॑:ऽभि: । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । पय॑सा । पय॑स्वती॒ इति॑ । ऋ॒तव॑री॒ इत्यृ॒तऽव॑री । य॒ज्ञिये॒ इति॑ । न॒: । पु॒नी॒ता॒म् ॥६२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानरो रश्मिभिर्नः पुनातु वातः प्राणेनेषिरो नभोभिः। द्यावापृथिवी पयसा पयस्वती ऋतावरी यज्ञिये नः पुनीताम् ॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानर: । रश्मिऽभि: । न: । पुनातु । वात: । प्राणेन । इषिर: । नभ:ऽभि: । द्यावापृथिवी इति । पयसा । पयस्वती इति । ऋतवरी इत्यृतऽवरी । यज्ञिये इति । न: । पुनीताम् ॥६२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 62; मन्त्र » 1
विषय - _ 'सूर्य, वायु, मेष, द्यावापृथिवी' द्वारा पवित्रता
पदार्थ -
१. (वैश्वानरः) = सब प्राणियों का हित करनेवाला सूर्य (रश्मिभिः) = अपनी किरणों से (नः पुनातु) = हमें पवित्र करे। (वात:) = देहमध्य में विचरण करता हुआ वायु (प्राणेन) = श्वासोच्छवासादिरूप से हमें पवित्र करें। (इषिर:) = यह गमनशील-अन्तरिक्ष में विचरण करनेवाला वायु (नभोभिः) अन्तरिक्ष-प्रदेशस्थ मेघों से हमें पवित्र करे। २. (द्यावापृथिवी) = धुलोक व पृथिवीलोक (न:) = हमें (पुनीताम्) = पवित्र करें। जो द्यावापृथिवी (पयसा पयस्वती) = सारभूत रस से सारवाले हैं, (ऋतावरी) = उदकवाले हैं और (यज्ञिये) = यज्ञों के निष्पादन में समर्थ हैं, अथवा संगतिकरण योग्य हैं। हमें इन द्यावापृथिवी को मिलाकर ही चलना चाहिए। अपने जीवन में शरीर [पृथिवी] व मस्तिष्क [युलोक] दोनों का ही ध्यान रखना चाहिए।
भावार्थ -
सूर्य, वायु, मेघ व द्यावापृथिवी-सभी हमें पवित्र करनेवाले हों।
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