अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - आर्ची त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
तस्मा॒द्वन॒स्पती॑नां संवत्स॒रे वृ॒क्णमपि॑ रोहति वृ॒श्चते॒ऽस्याप्रि॑यो॒ भ्रातृ॑व्यो॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मा॑त् । वन॒स्पती॑नाम् । स॒म्ऽव॒त्स॒रे । वृ॒क्णम् । अपि॑ । रो॒ह॒ति॒ । वृ॒श्चते॑ । अ॒स्य॒ । अप्रि॑य: । भ्रातृ॑व्य: । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्माद्वनस्पतीनां संवत्सरे वृक्णमपि रोहति वृश्चतेऽस्याप्रियो भ्रातृव्यो य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मात् । वनस्पतीनाम् । सम्ऽवत्सरे । वृक्णम् । अपि । रोहति । वृश्चते । अस्य । अप्रिय: । भ्रातृव्य: । य: । एवम् । वेद ॥१२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 3;
मन्त्र » 2
विषय - वनस्पतियों का विराट् को प्राप्त होना
पदार्थ -
१. (सा) = वह विराटप कामधेनु [विशिष्ट शासन-व्यवस्था] (उदक्रामत्) = उत्क्रान्त हुई। (सा वनस्पतीन् आगच्छत्) = वह वनस्पतियों को पास हुई, (वनस्पतय: तां अघ्नत) = वनस्पतियों ने उसे प्राप्त किया [हन् गती]। (सा) = वह (संवत्सरे) = सम्पूर्ण वर्ष में (समभवत्) = उन वनस्पतियों के साथ हुई-खूब अच्छी फसल हुई। (तस्मात्) = इस कारण से (वनस्पतीनाम्) = वनस्पतियों का (वृक्णम्) = छिन्न भाग (अपि) = भी (संवत्सरे) = वर्षभर में (रोहति) = प्रादुर्भूत हो जाता है। (यः एवं वेद) = जो इस तत्त्व को समझ लेता है कि 'वनस्पतियों का छिन्नभाग भी फिर ठीक हो जाता है, तो हमारा छिन्नभाग भी क्यों न ठीक हो जाएगा'(अस्य) = इसका (अप्रियः भ्रातृव्यः वृश्चते) = अप्रिय शत्रु भी कट जाता हैं।
भावार्थ -
शासन-व्यवस्था के ठीक होने पर राष्ट्र में वृक्ण वृक्षों का रोहण होता है। जैसे वर्षभर में ये वृक्ष पुन: प्रादुर्भूत हो जाते हैं, इसी प्रकार इस राष्ट्र में लोग शत्रुओं से शत्रुता को भी समाप्त कर लेते हैं।
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