अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - चतुष्पदा प्राजापत्या पङ्क्तिः
सूक्तम् - विराट् सूक्त
सोद॑क्राम॒त्सा दे॒वानाग॑च्छ॒त्तां दे॒वा अ॑घ्नत॒ सार्ध॑मा॒से सम॑भवत्।
स्वर सहित पद पाठसा । उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा । दे॒वान् । आ । अ॒ग॒च्छ॒त् । ताम् । दे॒वा: । अ॒घ्न॒त॒ । सा । अ॒र्ध॒ऽमा॒से । सम् । अ॒भ॒व॒त् ॥१२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
सोदक्रामत्सा देवानागच्छत्तां देवा अघ्नत सार्धमासे समभवत्।
स्वर रहित पद पाठसा । उत् । अक्रामत् । सा । देवान् । आ । अगच्छत् । ताम् । देवा: । अघ्नत । सा । अर्धऽमासे । सम् । अभवत् ॥१२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 3;
मन्त्र » 5
विषय - देवों का विराट को प्राप्त होना
पदार्थ -
१. (सा उदक्रामत्) = वह विराट् उत्क्रान्त हुई। (सा देवान् आगच्छत्) = वह देवों को प्राप्त हुई। (देवा:) = देव (ताम् अघ्रत) = उसे प्राप्त हुए। (सा) = वह (अर्धमासे सम् अभवत्) = प्रत्येक अर्धमास में उनके साथ रही। (तस्मात) = इसी कारण से (देवेभ्यः) = देवों के लिए (अर्धमासे) = प्रत्येक अर्धमास पर. अर्थात् प्रत्येक पक्ष पर पूर्णिमा और अमावास्या के दिन (वषट् कुर्वन्ति) = अग्निहोत्र करते हैं। (यः एवं वेद) = जो इस तत्त्व को समझ लेता है कि प्रति पूर्णिमा और अमावास्या पर विशिष्ट यज्ञ करके वायु आदि देवों को शुद्ध करना आवश्यक है, वह (देवयानं पन्थां प्रजानाति) = देवयान मार्ग को भली प्रकार जान लेता है। इस देवयान मार्ग में चलता हुआ वह पुरुष 'सुर्यलोक' को प्राप्त करता है। सूर्य ही सर्वमुख्य देव है। देवयज्ञ करनेवाला सूर्यलोक को प्राप्त करता ही है।
भावार्थ -
वायु आदि देवों की शुद्धि के लिए विराट्वाले देश में, पूर्णिमा व अमावास्या पर बड़े-बड़े यज्ञ होते हैं। इन यज्ञों के करनेवाले देवलोक को प्राप्त होते हैं।
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