अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 12
सूक्त - चातनः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
यद॑ग्ने अ॒द्य मि॑थु॒ना शपा॑तो॒ यद्वा॒चस्तृ॒ष्टं ज॒नय॑न्त रे॒भाः। म॒न्योर्मन॑सः शर॒व्या॒ जाय॑ते॒ या तया॑ विध्य॒ हृद॑ये यातु॒धाना॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒ग्ने॒ । अ॒द्य । मि॒थु॒ना । शपा॑त: । यत् । वा॒च: । तृ॒ष्टम् । ज॒नय॑न्त: । रे॒भा: । म॒न्यो: । मन॑स: । श॒र॒व्या᳡ । जाय॑ते । या । तया॑ । वि॒ध्य॒ । हृद॑ये । या॒तु॒ऽधाना॑न् ॥३.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
यदग्ने अद्य मिथुना शपातो यद्वाचस्तृष्टं जनयन्त रेभाः। मन्योर्मनसः शरव्या जायते या तया विध्य हृदये यातुधानान् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अग्ने । अद्य । मिथुना । शपात: । यत् । वाच: । तृष्टम् । जनयन्त: । रेभा: । मन्यो: । मनस: । शरव्या । जायते । या । तया । विध्य । हृदये । यातुऽधानान् ॥३.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 12
विषय - पति-पत्नी व मित्रों को परस्पर कटुता के लिए 'वाग्दण्ड'
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = राजन्! (यत्) = जो (अद्य) = आज (मिथुना) = पति-पत्नी परस्पर (शपात:) = एक-दूसरे को आकृष्ट करनेवाले होते हैं-परस्पर अपशब्द बोल बैठते हैं और क्रोध में आकर राजाधिकरण [न्यायालय] में जाते हैं, (यत्) = जो (रेभा:) = बहुत बोलने के स्वभाववाले मित्र (वाचः तृष्टम्) = वाणी की कटुता को [harsh, pungent] (जनयन्त) = उत्पन्न करते हैं, अर्थात् परस्पर कड़वे शब्द बोलते हुए न्यायालय में आ पहुँचते हैं, इन (यातुधानान्) = एक-दूसरे को पीड़ित करनेवालों को तया (हृदये विध्य) = उस वाणी से हृदय में बींध [विद्ध कर] (या) = जो (मन्यो:) = कुछ भी विचारशील पुरुष के (मनस:) = मन की (शरव्या) = शरसंहति [बाणसमूह] (जायते) = बन जाती है, अर्थात् यह उपदेश वाणी उनके हृदय में प्रभाव पैदा करती है और वे आत्मग्लानि अनुभव करते हुए अपने कर्म के लिए पश्चात्तापयुक्त होते हैं।
भावार्थ -
पति-पत्नी परस्पर कटु शब्द बोल बैठे या मित्र तेजी में आकर अशुभ शब्द बोल जाएँ तो राजा उन्हें 'वाग्दण्ड' द्वारा भविष्य में वैसा न करने के लिए प्रेरित करे।
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