अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 12
ऋषिः - चातनः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
65
यद॑ग्ने अ॒द्य मि॑थु॒ना शपा॑तो॒ यद्वा॒चस्तृ॒ष्टं ज॒नय॑न्त रे॒भाः। म॒न्योर्मन॑सः शर॒व्या॒ जाय॑ते॒ या तया॑ विध्य॒ हृद॑ये यातु॒धाना॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒ग्ने॒ । अ॒द्य । मि॒थु॒ना । शपा॑त: । यत् । वा॒च: । तृ॒ष्टम् । ज॒नय॑न्त: । रे॒भा: । म॒न्यो: । मन॑स: । श॒र॒व्या᳡ । जाय॑ते । या । तया॑ । वि॒ध्य॒ । हृद॑ये । या॒तु॒ऽधाना॑न् ॥३.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
यदग्ने अद्य मिथुना शपातो यद्वाचस्तृष्टं जनयन्त रेभाः। मन्योर्मनसः शरव्या जायते या तया विध्य हृदये यातुधानान् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अग्ने । अद्य । मिथुना । शपात: । यत् । वाच: । तृष्टम् । जनयन्त: । रेभा: । मन्यो: । मनस: । शरव्या । जायते । या । तया । विध्य । हृदये । यातुऽधानान् ॥३.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (यत्) जो (अद्य) आज (मिथुना) दो हिंसक मनुष्य [सत्पुरुषों से] (शपातः) कुवचन बोलते हैं, और (यत्) जो (रेभाः) शब्द करनेवाले [शत्रु लोग] (वाचः) वाणी की (तृष्टम्) कठोरता (जनयन्त) उत्पन्न करते हैं (मन्योः) क्रोध से (मनसः) मन की (या) जो (शरव्या) बाणों की झड़ी (जायते) उत्पन्न होती है, (तया) उससे (यातुधानान्) दुःखदायियों को (हृदये) हृदय में (विध्य) वेध ले ॥१२॥
भावार्थ
राजा दुर्वचनभाषियों को विचारपूर्वक दण्ड देता रहे ॥१२॥
टिप्पणी
१२−(यत्) (अग्ने) (अद्य) अस्मिन् दिने (मिथुना) अ० ६।१४१।२। मिथृ वधे-उनन्। हिंसकौ (शपातः) शपतः (यत्) (वाचः) वाण्याः (तृष्टम्) ञितृषा पिपासायाम्-भावे क्त। तृष्णाम्। कटुत्वमित्यर्थः (जनयन्त) जनयन्ति। उत्पादयन्ति (रेभाः) रेभृ शब्दे-अच्। शब्दायमानाः शत्रवः (मन्योः) क्रोधात् (मनसः) अन्तःकरणस्य (शरव्या) अ० १।१९।१। शरु-यत्। बाणसंहतिः (जायते) उत्पद्यते (या) (तया) (विध्य) ताडय (हृदये) (यातुधानान्) पीडाप्रदान् ॥
विषय
पति-पत्नी व मित्रों को परस्पर कटुता के लिए 'वाग्दण्ड'
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = राजन्! (यत्) = जो (अद्य) = आज (मिथुना) = पति-पत्नी परस्पर (शपात:) = एक-दूसरे को आकृष्ट करनेवाले होते हैं-परस्पर अपशब्द बोल बैठते हैं और क्रोध में आकर राजाधिकरण [न्यायालय] में जाते हैं, (यत्) = जो (रेभा:) = बहुत बोलने के स्वभाववाले मित्र (वाचः तृष्टम्) = वाणी की कटुता को [harsh, pungent] (जनयन्त) = उत्पन्न करते हैं, अर्थात् परस्पर कड़वे शब्द बोलते हुए न्यायालय में आ पहुँचते हैं, इन (यातुधानान्) = एक-दूसरे को पीड़ित करनेवालों को तया (हृदये विध्य) = उस वाणी से हृदय में बींध [विद्ध कर] (या) = जो (मन्यो:) = कुछ भी विचारशील पुरुष के (मनस:) = मन की (शरव्या) = शरसंहति [बाणसमूह] (जायते) = बन जाती है, अर्थात् यह उपदेश वाणी उनके हृदय में प्रभाव पैदा करती है और वे आत्मग्लानि अनुभव करते हुए अपने कर्म के लिए पश्चात्तापयुक्त होते हैं।
भावार्थ
पति-पत्नी परस्पर कटु शब्द बोल बैठे या मित्र तेजी में आकर अशुभ शब्द बोल जाएँ तो राजा उन्हें 'वाग्दण्ड' द्वारा भविष्य में वैसा न करने के लिए प्रेरित करे।
भाषार्थ
(अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (अद्य) आज अर्थात् किसी भी दिन (मिथुना) पति-पत्नी (यत्) जो (शपातः) परस्पर के प्रति शाप देते हैं उन्हें तथा (रेभाः) परमेश्वर के स्तोता (यत्) जो (वाचः) वाणी की (तृष्टं) कटुता (जनयन्त) पैदा करते हैं उन्हें तथा (यातुधानान्) जो यातना देने वाले हैं, उन्हें (या) जो कि (मनसः मन्योः) मानसिक मन्यु से (शरब्या) इषु (जायते) पैदा होती है (तया) उस द्वरा (हृदये) उनके हृदयों को (विध्य) बीन्ध।
टिप्पणी
[पति-पत्नी का परस्पर कलह, परमेश्वरभक्त द्वारा कटु वचनों का प्रयोग, इनके करने वाले भी यातुधान हैं, यातना देने वाले हैं, इन्हें मानसिक क्रोधरूपी वाण द्वारा हृदयों में बींधना चाहिये, ताकि ये हार्दिक कष्ट अनुभव करें। रेभ स्तोतृनाम (निषं० ३।१६)। मन्युः=मननपूर्वक क्रोध, अन्धा क्रोध नहीं]।
विषय
प्रजा पीडकों का दमन।
भावार्थ
हे (अग्ने) राजन् ! (यत् अद्य) जब कभी (मिथुना) दोनों स्त्री पुरुष, गृहस्थ लोग (शपातः) दुःखित होकर किसी को गालियां देवें, बुरा भला कहें, रोवें-चीखें और (यत्) जब (रेभाः) विद्वान् लोग भी (वाचः) वाणी का (तृष्टम्) कटु रूप (जनयन्त) उत्पन्न करें अर्थात् तीखी हृदयवेधी वाणियां बोलें तब उन गृहस्थों और विद्वान् पुरुषों की दयनीय दुःखवेदना देखकर हे राजन् ! (या) जो (मन्योः) मन्यु रूप तेरे (मनसः) मन से जो (शरव्या) तीव्र बाण के समान क्रोध की ज्वाला (जायते) प्रकट होती है (तया) उससे (यातुधानम्) प्रजा के पीड़क पुरुषों को (विध्य) विनष्ट कर। राज्य में गृहस्थ, नरनारी और विद्वान् पुरुषों के आर्तनाद पर राजा ध्यान दे और उनको दुःख देनेवाले दुष्ट लोगों को पकड़ कर मनमाना दण्ड दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। अग्निर्देवता, रक्षोहणम् सूक्तम्। १, ६, ८, १३, १५, १६, १८, २०, २४ जगत्यः। ७, १४, १७, २१, १२ भुरिक्। २५ बृहतीगर्भा जगती। २२,२३ अनुष्टुभो। २६ गायत्री। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of the Evil
Meaning
The execrations which people in argument utter in their differences, the roughness of tone which fighters produce in their quarrel, and the sting that is born of the mind in the pain of anger, with that pain of affliction, Agni, pierce the heart of the violent saboteurs and destroyers of life and truth.
Translation
What the (affectionate) couple abuse each other today, what the praise-singers (suddenly) produce bitterness of speech, what arrow is born from the anger of the heart, O fire, with that may you pierce these tormentors through the heart.
Translation
O ruler! What curse the dual in quarrel utter, what rude rough and cruel word the fighting persons use,. and what arrow-like taunt and word of rage comes out from the anger of angry mind let you therewith pierce the wicked man in their heart.
Translation
O King, whenever the pair utters curse against a fiend, or learned persons use rude, rough words for him, the flame of wrath is kindled in thy indignant mind; pierce thou to the heart therewith the fiends!
Footnote
When a pair, i.e, husband and wife cry against the atrocity of a wicked person, or learned persons condemn in strong language the misdeeds of a satanic person, the king feels enraged after hearing them, and should give condign punishment to such devils.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(यत्) (अग्ने) (अद्य) अस्मिन् दिने (मिथुना) अ० ६।१४१।२। मिथृ वधे-उनन्। हिंसकौ (शपातः) शपतः (यत्) (वाचः) वाण्याः (तृष्टम्) ञितृषा पिपासायाम्-भावे क्त। तृष्णाम्। कटुत्वमित्यर्थः (जनयन्त) जनयन्ति। उत्पादयन्ति (रेभाः) रेभृ शब्दे-अच्। शब्दायमानाः शत्रवः (मन्योः) क्रोधात् (मनसः) अन्तःकरणस्य (शरव्या) अ० १।१९।१। शरु-यत्। बाणसंहतिः (जायते) उत्पद्यते (या) (तया) (विध्य) ताडय (हृदये) (यातुधानान्) पीडाप्रदान् ॥
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