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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 25
    ऋषिः - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - पञ्चपदा बृहतीगर्भा जगती सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    72

    ये ते॒ शृङ्गे॑ अ॒जरे॑ जातवेदस्ति॒ग्महे॑ती॒ ब्रह्म॑संशिते। ताभ्यां॑ दु॒र्हार्द॑मभि॒दास॑न्तं किमी॒दिनं॑ प्र॒त्यञ्च॑म॒र्चिषा॑ जातवेदो॒ वि नि॑क्ष्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये इति॑ । ते॒ । शृङ्गे॒ इति॑ । अ॒जरे॒ इति॑ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । ति॒ग्महे॑ती इति॑ ति॒ग्मऽहे॑ती । ब्रह्म॑संशिते॒ इति॑ ब्रह्म॑ऽसशिते । ताभ्या॑म् । दु॒:ऽहार्द॑म् । अ॒भि॒ऽदास॑न्तम् । कि॒मी॒दिन॑म् । प्र॒त्यञ्च॑म् । अ॒र्चिषा॑ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । वि । नि॒क्ष्व॒ ॥३.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये ते शृङ्गे अजरे जातवेदस्तिग्महेती ब्रह्मसंशिते। ताभ्यां दुर्हार्दमभिदासन्तं किमीदिनं प्रत्यञ्चमर्चिषा जातवेदो वि निक्ष्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये इति । ते । शृङ्गे इति । अजरे इति । जातऽवेद: । तिग्महेती इति तिग्मऽहेती । ब्रह्मसंशिते इति ब्रह्मऽसशिते । ताभ्याम् । दु:ऽहार्दम् । अभिऽदासन्तम् । किमीदिनम् । प्रत्यञ्चम् । अर्चिषा । जातऽवेद: । वि । निक्ष्व ॥३.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (जातवेदः) हे बड़े ज्ञानवाले राजन् ! (ये) जो (ते) तेरे (अजरे) अजर [अनश्वर] (शृङ्गे) दो प्रधान सामर्थ्य [प्रजापालन और शत्रुनाशन] (तिग्महेती) तेज हथियारोंवाले, (ब्रह्मसंशिते) वेद से तीक्ष्ण किये गये हैं। (ताभ्याम्) उन दोनों से (दुर्हार्दम्) दुष्ट हृदयवाले, (अभिदासन्तम्) अति दुःख देनेवाले, (प्रत्यञ्चम्) प्रतिकूल चलनेवाले, (किमीदिनम्) [अब क्या हो रहा है, वह क्या हो रहा है, ऐसे] खोजी शत्रु को (अर्चिषा) अपने तेज से, (जातवेदः) हे बड़े धनवाले ! (वि निक्ष्व) तू नाश कर दे ॥२५॥

    भावार्थ

    जो वेदानुगामी राजा, अपनी राज्यशक्ति को प्रजापालन और शत्रुनाशन में लगाता है, वह कीर्तिमान् होता है ॥२५॥

    टिप्पणी

    २५−(ये) (ते) तव (शृङ्गे) म० २४। द्वे प्राधान्ये प्रजापालनं शत्रुनाशनं च (अजरे) अजीर्णे। अनश्वरे (जातवेदः) हे प्रभूतधन (तिग्महेती) सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णा०। पा० ७।१।३९। पूर्वसवर्णदीर्घः। तिग्महेतिनी। तीक्ष्णायुधे (ब्रह्मसंशिते) वेदद्वारा तीक्ष्णीकृते (ताभ्याम्) प्राधान्याभ्याम् (दुर्हार्दम्) अ० २।७।५। दुष्टहृदयम् (अभिदासन्तम्) सर्वतो हिंसन्तम् (किमीदिनम्) अ० १।७।१। पिशुनं शत्रुम् (प्रत्यञ्चम्) प्रतिकूलगन्तारम् (अर्चिषा) तेजसा (जातवेदः) हे बहुधन (वि निक्ष्व)-म० २४। विनाशय ॥

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    विषय

    दुष्ट हृदयता आदि का निराकरण

    पदार्थ

    १. हे जातवेदः सर्वज्ञ प्रभो! (ये) = जो (ते) = आपके (अजरे) = कभी जीर्ण न होनेवाले (तिग्महेती) = तीक्ष्णता से हनन के साधनभूत (ब्रह्मसंशिते) = ज्ञान से तीव्र किये गये (शृंगे) = शत्रुओं को शीर्ण करने के साधनरूप 'ब्रह्म व क्षत्र' रूप शंग हैं, (ताभ्याम्) = उनके द्वारा हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! इस (दुर्हादिम्) = दुष्ट हृदयवाले पुरुष को (अर्चिषा विनिक्ष्व) = तीव्र ज्वाला से-ज्ञानशक्ति की ज्वाला से विनष्ट कर दीजिए, जोकि (अभिदासन्तम्) = सर्वत: उपक्षय करनेवाला है, (किमीदिनम्) = दूसरे के जान व माल को तुच्छ समझनेबाला है [किम् इदानीम् इति वदन्तम्] तथा (प्रत्यञ्चम्) = [प्रति अञ्ब] हमारे सम्मुख आक्रमण के लिए आनेवाला है। प्रभु ज्ञान व शक्ति देकर 'दुष्टहदयता' आदि को विनष्ट कर देते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु हमें ज्ञान व शक्ति प्राप्त कराके शुभ हृदयवाला-औरों का उपक्षय न करनेवाला-औरों के जान व माल को तुच्छ न समझनेवाला व औरों पर आक्रमण न करनेवाला बनाएँ।



     

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    भाषार्थ

    (जातवेदः) हे जातप्रज्ञ ! (ये) जो (ते) तेरे (अजरे) अजीर्ण (शृङ्गे) दो सींग हैं, या जलते हुए (तिग्महेती) तिग्म शस्त्र और अस्त्र हैं, (ब्रह्मसंशिते) जो कि वेदोक्त विधि द्वारा सम्यक्-तीक्ष्ण किये गए हैं, (ताभ्याम्) उन दो द्वारा (जातवेदः) हे जातप्रज्ञ ! तू (दुहर्दिम्) दुष्टहृदय, कपटी (अभिदासन्तम्) उपक्षयकारी, (प्रत्यञ्चम्) हमारे विरोध में गतिवाले (किमीदिनम) "अब क्या हो रहा है, यह क्या है" इस प्रकार हमारा भेद लेने-वाले “पर गुप्तचर" को (अर्चिषा) अर्चि नामक अस्त्रों के द्वारा (वि निक्ष्व) चुम्बन अर्थात् शस्त्रास्त्र के स्पर्श१ मात्र द्वारा विनष्ट कर।

    टिप्पणी

    [शृङ्गे, तिग्महेती =दो प्रकार के तीक्ष्ण आयुध= अस्त्र और शस्त्र। अभिदासन्तम् = दसु उपक्षये (दिवादिः)। प्रत्यञ्चम् = प्रति अर्थात् प्रतिकूल हो कर "अञ्चु गतौ" गति करने वाला] [१. चुम्बन स्पर्श मात्र ही होता है। णिक्ष चुम्बने (भ्वादिः)।]

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    विषय

    प्रजा पीडकों का दमन।

    भावार्थ

    हे (जातवेदः) विद्वान् राजन् ! (ये) जो (ते) तेरे (अजरे) अविनाशी (ब्रह्मसंशिते) ब्रह्म, वेद के ज्ञान से तीक्ष्ण हुए (तिग्महेती) दो प्रकार के शस्त्र और अस्त्र, तीखे हथियार हैं (ताभ्याम्) उनसे (दुर्हार्दम्) दुष्ट हृदयवाले (किमीदिनम्) दूसरों की जान और माल को तुच्छ समझने वाले (अभिदासन्तम्) विनाशकारी (प्रत्यञ्चम्) अपने से विपरीतकारी पुरुष को (अर्चिषा) ज्वाला से हे (जातवेदः) अग्नि के समान प्रतापी राजन् ! (वि निक्ष्व) विनाश कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। अग्निर्देवता, रक्षोहणम् सूक्तम्। १, ६, ८, १३, १५, १६, १८, २०, २४ जगत्यः। ७, १४, १७, २१, १२ भुरिक्। २५ बृहतीगर्भा जगती। २२,२३ अनुष्टुभो। २६ गायत्री। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of the Evil

    Meaning

    O Jataveda, instant all knowing Agni, unaging, sharp and penetrative, deadly are your arms of offence and defence in battle, shined and calibrated by divine vision and knowledge. With those arms. O Jataveda, and with your light and fire, openly destroy the demonic ogres, evil, cruel at heart, destroyers of life who plan to enslave humanity.

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    Translation

    O fire-divine, what two horns, never-decaying keen thrusting and sharpened with knowledge, you have, with those, and your flame, O knower of all, may you gore the evil-hearted, and advancing ever-hungry devourer.

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    Translation

    O sharp-witted King! You destroy the trouble-creating, Destructive person who takes exorbitant interests on money: with those two horn like powers of yours which are in- exhaustible, possessed of many sharp weapons and sharpened with the Knowledge of the Vedas and exterminate Him, O learned one! With your strength.

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    Translation

    O learned King, thy two unwasting horns are keen-pointed weapons, sharpened by Vedic knowledge. With these transfix the wicked-souled person, who cares not an iota for the life and property of others, and is aggressive in nature, with fierce flame of wrath, O King, when he meets thee!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २५−(ये) (ते) तव (शृङ्गे) म० २४। द्वे प्राधान्ये प्रजापालनं शत्रुनाशनं च (अजरे) अजीर्णे। अनश्वरे (जातवेदः) हे प्रभूतधन (तिग्महेती) सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णा०। पा० ७।१।३९। पूर्वसवर्णदीर्घः। तिग्महेतिनी। तीक्ष्णायुधे (ब्रह्मसंशिते) वेदद्वारा तीक्ष्णीकृते (ताभ्याम्) प्राधान्याभ्याम् (दुर्हार्दम्) अ० २।७।५। दुष्टहृदयम् (अभिदासन्तम्) सर्वतो हिंसन्तम् (किमीदिनम्) अ० १।७।१। पिशुनं शत्रुम् (प्रत्यञ्चम्) प्रतिकूलगन्तारम् (अर्चिषा) तेजसा (जातवेदः) हे बहुधन (वि निक्ष्व)-म० २४। विनाशय ॥

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