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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 24
    ऋषिः - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    65

    वि ज्योति॑षा बृह॒ता भा॑त्य॒ग्निरा॒विर्विश्वा॑नि कृणुते महि॒त्वा। प्रादे॑वीर्मा॒याः स॑हते दु॒रेवाः॒ शिशी॑ते॒ शृङ्गे॒ रक्षो॑भ्यो वि॒निक्ष्वे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । ज्योति॑षा । बृ॒ह॒ता । भा॒ति॒ । अ॒ग्नि: । आ॒वि: । विश्वा॑नि । कृ॒णु॒ते॒ । म॒हि॒ऽत्वा । प्र । अदे॑वी: । मा॒या: । स॒ह॒ते॒ । दु॒:ऽएवा॑: । शिशी॑ते । शृङ्गे॒ इति॑ । रक्ष॑:ऽभ्य: । वि॒ऽनिक्ष्वे॑ ॥३.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि ज्योतिषा बृहता भात्यग्निराविर्विश्वानि कृणुते महित्वा। प्रादेवीर्मायाः सहते दुरेवाः शिशीते शृङ्गे रक्षोभ्यो विनिक्ष्वे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । ज्योतिषा । बृहता । भाति । अग्नि: । आवि: । विश्वानि । कृणुते । महिऽत्वा । प्र । अदेवी: । माया: । सहते । दु:ऽएवा: । शिशीते । शृङ्गे इति । रक्ष:ऽभ्य: । विऽनिक्ष्वे ॥३.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्निः) अग्नि [समान तेजस्वी राजा] (बृहता) बड़ी (ज्योतिषा) तेज के साथ (वि भाति) चमकता है, और (विश्वानि) सब वस्तुओं को (महित्वा) अपनी महिमा से (आविः कृणुते) प्रकट करता है। (अदेवीः) अशुद्ध, (दुरेवाः) दुर्गतिवाली (मायाः) बुद्धियों को (प्रसहते) जीत लेता है, और (शृङ्गे) दो प्रधान सामर्थ्य [प्रजापालन और शत्रुनाशन] को (रक्षोभ्यः) दुष्टों के (विनिक्ष्वे) विनाश के लिये (शिशीते) तेज करता है ॥२४॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य अग्नि आदि प्रकाश करके सब पदार्थों को दिखाता और अन्धकार मिटाता है, वैसे ही प्रतापी राजा अपनी प्रधानता से प्रजा का पालन और शत्रुओं का नाश करता है ॥२४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−५।२।९।

    टिप्पणी

    २४−(वि) विविधम् (ज्योतिषा) तेजसा (बृहता) महता (भाति) प्रकाशते (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी राजा (आविः) अर्चिशुचिहु०। उ० २।१०८। आङ्+अव रक्षणादिषु-इसि। प्राकट्ये (विश्वानि) सर्वाणि वस्तूनि (कृणुते) करोति (महित्वा) महिम्ना (प्र) प्रकर्षेण (अदेवीः) अशुद्धाः (मायाः) बुद्धीः (सहते) अभिभवति। जयति (दुरेवाः) अ० ७।५०।७। दुर्गतियुक्ताः (शिशीते) तेजते (शृङ्गे) शृणातेर्ह्रस्वश्च। उ० १।१२६। शॄ हिंसायाम्-गन्, स च कित्, नुट् च। शृङ्गं श्रयतेर्वा शृणातेर्वा शरणायोद्गतमिति वा शिरसो निर्गतमिति वा-निरु० २।७। शृङ्गं प्राधान्यसान्वोश्च-इत्यमरः २३।२६। द्विप्रकारे प्राधान्ये प्रजापालनं शत्रुनाशनं च (रक्षोभ्यः) षष्ठ्यर्थे चतुर्थी वक्तव्या। वा० पा० २।३।६२। रक्षसाम्। दुष्टानाम् (विनिक्ष्वे) भृमृशीङ्०। १।७। णिक्ष चुम्बने, विपूर्वको नाशने-उ प्रत्ययः, यणादेशः। विनिक्ष्वे। विनाशाय ॥

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    विषय

    शृंगद्वयी

    पदार्थ

    १. (अग्ने:) = वह अनेणी प्रभु (बृहता ज्योतिषा) = हमारी वृद्धि की कारणभूत महती ज्ञानज्योति से (विभाति) = विशिष्टरूप से दीप्त हो रहा है। वह प्रभु (महित्वा) = अपनी महिमा से (विश्वानि) = सब लोक-लोकान्तरों को (आवि: कृणुते) = प्रकट करता है अथवा तेज के द्वारा सबके प्रति अपने को प्रकट करता है। २. वे हृदयस्थ प्रभु (अदेवी:) = आसुरी (दुरेवा:) = दुर्गमन-[दुराचार]-रूप (माया:) = छल कपट को (प्रसहते) = अभिभूत करते हैं-प्रभु छल-कपट की वृत्तियों को विनष्ट करते हैं। वे प्रभु (रक्षोभ्यः विनिवे) = राक्षसी वृत्तियों के विनाश के लिए (शङ्गे शिशीते) = उपासक के शृंगों को तीव्र करते हैं। [शंगे शृणाते:-नि०] 'ज्ञान और कर्म' ही साधक के शृंग हैं। ये उसके शत्रुभूत काम क्रोध का विनाश करनेवाले होते हैं। उपासक के 'ब्रह्म व क्षत्र' का विकास करके प्रभु काम क्रोध को दूर भगा देते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु का प्रकाश सर्वत्र व्याप्त है। प्रभु अपनी महिमा से सब लोकों को प्रकाशित करते हैं। वे ही हमारी आसुरी वृत्तियों को विनष्ट करते हैं और हमारे राक्षसीभावों के विनाश के लिए हमारे 'ब्रह्म+क्षत्र' को विकसित करते हैं।

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    भाषार्थ

    (अग्निः) अग्रणी प्रधानमन्त्री (बृहता ज्योतिषा) महातेज द्वारा (विभाति) चमकीला है, और (महित्वा) निज महत्व द्वारा, (विश्वानि) राष्ट्र के सब स्वरूपों [साधनों] को (आविः कृणुते) प्रकट करता है। (दुरेवाः) दुष्ट चालों बाली (अदेवीः मायाः) आसुरी-मायाओं का (प्रसहते) पराभव करता है, (रक्षोभ्यः) राक्षसों के लिये, उनके (विनिक्ष्वे) विनाश के लिए, (शृङ्गे) जलते हुए अस्त्रों और शस्त्रों को (शिशीते) तीक्ष्ण करता है।

    टिप्पणी

    [विश्वानि= राष्ट्र के सब युद्ध-साधनों को अर्थात् शस्त्रास्त्र, सैतिक शक्ति, तथा धनसम्पत् आदि को आविष्कृत करता है। मायाः= छलकपट। शृङ्गे = "शङ्गाणि ज्वलतो नाम" (निघं० १।१७)। अथवा गौ जैसे निज रक्षार्थ दो सींग रखती है, तद्वत् निज राष्ट्र की रक्षा के लिये प्रधानमन्त्री "शस्त्र और अस्त्ररूपी द्विवध शृङ्गों को रखता और उन्हें तेज करता है। विनिक्ष्वे= वि+निक्ष (चुम्बने१, भ्वादिः)। चुम्बन= छुना। प्रधानमन्त्री के शस्त्रास्त्र ऐसे होने चाहिये कि शत्रु के साथ स्पर्श होते ही शत्रु का विनाश हो जाय। 'वि, निक्षे =तुमर्थे केन् प्रत्ययः। वकारोपजनश्छान्दसः१ सायण]। [१. चुम्बन स्पर्श मात्र ही तो होता है। णिक्ष चुम्बने (भ्वादिः)।]

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    विषय

    प्रजा पीडकों का दमन।

    भावार्थ

    (अग्निः) प्रकाशमान सूर्य जिस प्रकार (बृहता) बड़े विशाल (ज्योतिषा) तेज से (विभाति) विविध रूप से प्रकाशमान होता है और (महित्वा) अपने महान् सामर्थ्य से (विश्वानि) संसार के समस्त पदार्थों को (आविः कृणुते) प्रकाश से प्रकाशित करता और प्रकट करता है और जिस प्रकार परमेश्वर अपने बड़े भारी तेज से नाना सूर्यों में प्रकाशमान है और सब पदार्थों को अपने सामर्थ्य से प्रकट करता है उसी प्रकार यह (अग्निः) राजा भी अपने (बृहता ज्योतिषा) बड़े भारी तेज से (विभाति) नाना प्रकार से प्रकाशित होता है और (महित्वा) अपने बड़े सामर्थ्य से सब प्रकार के प्रजा के हितकारी कार्यो को (आविः कृणुते) प्रकट करता है। और (अदेवीः) देवों से विपरीत असुरों की (दुरेवाः) दुःखदायिनी या दुःसाध्य (मायाः) मायाओं को (प्र सहते) वश करता है और (रक्षोभ्यः) राक्षसों के (विनिक्षे) विनाश के लिये (शृङ्गे) अपने सोंग के समान तीखे हिंसा के साधन शस्त्रों और अस्त्रों को (शिशीते) सदा तेज, तीखे बनाये रहता है।

    टिप्पणी

    (च०) ‘रक्षसे विनिक्षे’ इति ऋ०। तत्रास्याः वृषो जार ऋषिः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। अग्निर्देवता, रक्षोहणम् सूक्तम्। १, ६, ८, १३, १५, १६, १८, २०, २४ जगत्यः। ७, १४, १७, २१, १२ भुरिक्। २५ बृहतीगर्भा जगती। २२,२३ अनुष्टुभो। २६ गायत्री। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of the Evil

    Meaning

    Agni, leading light and mighty ruler, shines with boundless light and fire in all its glory and majesty, and with its light and power illuminates and reveals all power and potentials of the world of its creation. It challenges and defeats the ugly and evil forces of the negative elements of the world and constantly sharpens and shines its fighting gear for the elimination of destructive forces.

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    Translation

    This fire-divine shines out with immense light. With his l mighty glow, he makes all the things visible. He overpowers the demoniac and ill-intentioned deceits; and He sharpens his horns for destroying the wicked ones.

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    Translation

    As the fire or sun shines with its lofty splendor and makes everything apparent with its grand power, in the same manner the King shines with the splendor of his great qualities and makes his power manifest in the Kingdom by his grandeur. He conquers all the devil-like malign activities and designs and sharpens his two hornlike powers—the administration enternal and defense from outside attack.

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    Translation

    The King shines far and wide with lofty splendor, and by his greatness performs all acts conducive to the welfare of his subjects. He conquers godless and malign illusions, and sharpens both his horns (weapons) to gore the ogres.

    Footnote

    Horns: Protection of the subjects, and annihilation of the foes.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(वि) विविधम् (ज्योतिषा) तेजसा (बृहता) महता (भाति) प्रकाशते (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी राजा (आविः) अर्चिशुचिहु०। उ० २।१०८। आङ्+अव रक्षणादिषु-इसि। प्राकट्ये (विश्वानि) सर्वाणि वस्तूनि (कृणुते) करोति (महित्वा) महिम्ना (प्र) प्रकर्षेण (अदेवीः) अशुद्धाः (मायाः) बुद्धीः (सहते) अभिभवति। जयति (दुरेवाः) अ० ७।५०।७। दुर्गतियुक्ताः (शिशीते) तेजते (शृङ्गे) शृणातेर्ह्रस्वश्च। उ० १।१२६। शॄ हिंसायाम्-गन्, स च कित्, नुट् च। शृङ्गं श्रयतेर्वा शृणातेर्वा शरणायोद्गतमिति वा शिरसो निर्गतमिति वा-निरु० २।७। शृङ्गं प्राधान्यसान्वोश्च-इत्यमरः २३।२६। द्विप्रकारे प्राधान्ये प्रजापालनं शत्रुनाशनं च (रक्षोभ्यः) षष्ठ्यर्थे चतुर्थी वक्तव्या। वा० पा० २।३।६२। रक्षसाम्। दुष्टानाम् (विनिक्ष्वे) भृमृशीङ्०। १।७। णिक्ष चुम्बने, विपूर्वको नाशने-उ प्रत्ययः, यणादेशः। विनिक्ष्वे। विनाशाय ॥

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