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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
    ऋषिः - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    80

    अग्ने॒ त्वचं॑ यातु॒धान॑स्य भिन्धि हिं॒स्राशनि॒र्हर॑सा हन्त्वेनम्। प्र पर्वा॑णि जातवेदः शृणीहि क्र॒व्यात्क्र॑वि॒ष्णुर्वि चि॑नोत्वेनम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । त्वच॑म् । या॒तु॒ऽधान॑स्य । भि॒न्धि॒ । हिं॒स्रा । अ॒शनि॑: । हर॑सा । ह॒न्तु॒ । ए॒न॒म् । प्र । पर्वा॑णि । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । शृ॒णी॒हि॒ । क्र॒व्य॒ऽअत् । क्र॒वि॒ष्णु: । वि । चि॒नो॒तु॒ । ए॒न॒म् ॥३..४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने त्वचं यातुधानस्य भिन्धि हिंस्राशनिर्हरसा हन्त्वेनम्। प्र पर्वाणि जातवेदः शृणीहि क्रव्यात्क्रविष्णुर्वि चिनोत्वेनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । त्वचम् । यातुऽधानस्य । भिन्धि । हिंस्रा । अशनि: । हरसा । हन्तु । एनम् । प्र । पर्वाणि । जातऽवेद: । शृणीहि । क्रव्यऽअत् । क्रविष्णु: । वि । चिनोतु । एनम् ॥३..४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (यातुधानस्य) दुःखदायी दुष्ट की (त्वचम्) खाल (भिन्धि) उजाड़ दे, [तेरी] (हिंस्रा) वध करनेवाली (अशनिः) बिजुली [बिजुली का वज्र] (हरसा) अपने तेज से (एनम्) इस [अत्याचारी] को (हन्तु) मारे। (जातवेदः) हे महाधनी राजन् ! [उसके] (पर्वाणि) जोड़ों को (प्र शृणीहि) कुचल डाल, (क्रव्यात्) मांस खानेवाला, (क्रविष्णुः) भयंकर [सिंह, गीदड़, गिद्ध आदि जीव] (एनम्) इसको (वि चिनोतु) चींथ डाले ॥४॥

    भावार्थ

    राजा दुराचारियों को बिजुली वा अग्नि के हथियारों से कठिन दण्ड देकर विनाश करदे ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (त्वचम्) अ० १।२३।४। चर्म (यातुधानस्य) पीडाप्रदस्य (हिंस्रा) हिंसिका (अशनिः) विद्युत्। वज्रः (हरसा) तेजसा-निरु० ५।१२। (हन्तु) नाशयतु (प्र) प्रकर्षेण (पर्वाणि) शरीरग्रन्थीन् (जातवेदः) हे प्रसिद्धधन (शृणीहि) मर्दय (क्रव्यात्) मांसभक्षकः (क्रविष्णुः) णेश्छन्दसि। पा० ३।२।१३७। क्लव भये, णिच्-इष्णुच्, लस्य रः, णिलोपश्छान्दसः। क्रावयिष्णुः। भयङ्करो जन्तुः (वि चिनोतु) आकृष्य विप्रकीर्णं करोतु (एनम्) दुष्टम् ॥

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    विषय

    यातुधान को अयातुधान बनाना

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = राष्ट्र को उन्नतिपथ पर ले-चलनेवाले राजन्! (यातुधानस्य) = प्रजापीड़क के (त्वचम्) = सम्पर्क को (भिन्धि) = तोड़ दे, इसे अपने साथियों से अलग कर दे। अलग होने पर यह अपने जीवन के मार्ग के विषय में ठीक सोच सकता है। (हिंस्त्राशनि:) = [अशनि-master] अज्ञान को नष्ट करनेवाला अध्यापक (हरसा) = वासनाओं को विनष्ट करने की शक्ति से (एनं हन्तु) = इस यातुधान को प्राप्त हो [हन् गतौ]। वह ज्ञान देकर इसे अधर्म मार्ग से हटानेवाला हो। २. हे (जातवेदः) = ज्ञानीपुरुष! तू (पर्वाणि) = इसकी वासना-ग्रन्थियों को (प्रशृणीहि) = प्रकर्षेण नष्ट करनेवाला बन। ज्ञान के द्वारा तू इसे वासनामय जगत् से ऊपर उठा। तू उसे इसप्रकार का ज्ञान दे कि वह (क्रविष्णु:) = औरों के मांस की इच्छावाला (क्रव्यात्) = मांसभक्षक पुरुष-औरों के नाश में लगा हुआ पुरुष (एनम्) = इन द्वेषों व दोषों को (वि चिनोतु) = अपने से पृथक् करनेवाला हो। यह औरों के विनाश पर अपने (आमोद) = भवन को खड़ा न करे।

    भावार्थ

    राजा यातुधान को उसके साथियों से अलग करे। ज्ञानी पुरुष उसे ज्ञान दें। इस ज्ञान द्वारा वे उसकी वासना-ग्रन्थियों को विनष्ट करें।

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (यातुधानस्य) यातना देने वाले की (त्वचम्) त्वचा को (भिन्धि) छिन्न-भिन्न कर दे। (हिंस्रा अशनिः) हिंसाकारी वैद्युतास्त्र (हरसा) जीवनापहरण द्वारा (एनम् हन्तु) इस का हनन करे। (जातवेदः) हे उत्पन्नप्रज्ञ ! (पर्वाणि) इस के शारीरिक अङ्गों या जोड़ों को (प्रशृणीहि) काट दे, (क्रव्यात्) कच्चा मांस खाने वाला, (क्रविष्णः) कच्चा मांस खाने के स्वभाव वाला [वृकादि पशु] (एनम्) इसे (विचिनोतु) भक्षणार्थ चुने।

    टिप्पणी

    [शान्तिप्रिय राष्ट्र या व्यक्ति को यातना देने वाले व्यक्ति के लिये, उग्र दण्ड विधान हुआ है।]

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    विषय

    प्रजा पीडकों का दमन।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने ! शत्रुनाशक राजन् ! तू (यातुधानस्य) प्रजा को पीड़ा देने वाले दुष्ट डाकू पुरुष की (त्वचम्) खाल को (भिन्धि) शरीर से कटवा कटवा कर छिलवा दे । (हिंस्राशनिः) उसको मार डालने वाली विद्युत् (हरसा) प्राण हरण करने वाले धक्कों से (एनं हन्तु) उसको मार डालें। और उसके (पर्वाणि) पोरू पोरु को हे (जातवेदः) प्रज्ञावान् राजन् ! (शृणीहि) कटवा डाल। ओर (क्रविष्णुः) मांस का भूखा (क्रव्यात्) मांसाहारी जन्तु (एनम्) दुष्ट पुरुष को (विचिनोतु) नाना प्रकार से नोच नोच कर खा जाय। प्रजापीड़कों को राजा विचित्र दण्ड दे जैसे―उसकी खाल छिलवा दे, बिजली के धक्कों में मरवा दे, पोरू पोरू करवादे या भूखे शेर चीतों से फड़वा दे। जिससे उसको अपने किये अत्याचारों का प्रतिफल मिले और अपने से पीड़ितों के कष्टों का भी उसे ज्ञान हो।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘विचिनोतु वक्णम्’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। अग्निर्देवता, रक्षोहणम् सूक्तम्। १, ६, ८, १३, १५, १६, १८, २०, २४ जगत्यः। ७, १४, १७, २१, १२ भुरिक्। २५ बृहतीगर्भा जगती। २२,२३ अनुष्टुभो। २६ गायत्री। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of the Evil

    Meaning

    O Agni, thunderous destroyer of evil and enmity, saboteurs and destroyers, let electric force and relentless strike break down the cover and camouflage. O Jataveda, all-knowing all-reaching presence, break the interior connections of this organisation, and let the flesh consuming fire collect the body for itself.

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    Translation

    O sacrificial fire, may you pierce the skin of the tormentors. May the violent lightning kill him with intense heat. O knower of all, tear his joints to pieces; let a flesh-eater, yearning for flesh, drag and devour him.

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    Translation

    O mighty ruler II pierce through the skin of the offender and let the fatal electrical device destroy him with its mightily force. O wise King ! tear out his joints and let flesh-seeking animal destroy him.

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    Translation

    O King, pierce through the wicked person’s skin; let the destroying dart with fire consume him. Rend his joints, O King, let the eater of raw flesh, anxious for flesh, tear and destroy him!

    Footnote

    Eater of flesh: A tiger or wolf.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (त्वचम्) अ० १।२३।४। चर्म (यातुधानस्य) पीडाप्रदस्य (हिंस्रा) हिंसिका (अशनिः) विद्युत्। वज्रः (हरसा) तेजसा-निरु० ५।१२। (हन्तु) नाशयतु (प्र) प्रकर्षेण (पर्वाणि) शरीरग्रन्थीन् (जातवेदः) हे प्रसिद्धधन (शृणीहि) मर्दय (क्रव्यात्) मांसभक्षकः (क्रविष्णुः) णेश्छन्दसि। पा० ३।२।१३७। क्लव भये, णिच्-इष्णुच्, लस्य रः, णिलोपश्छान्दसः। क्रावयिष्णुः। भयङ्करो जन्तुः (वि चिनोतु) आकृष्य विप्रकीर्णं करोतु (एनम्) दुष्टम् ॥

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