अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 15
ऋषिः - चातनः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
274
यः पौरु॑षेयेण क्र॒विषा॑ सम॒ङ्क्ते यो अश्व्ये॑न प॒शुना॑ यातु॒धानः॑। यो अ॒घ्न्याया॒ भर॑ति क्षी॒रम॑ग्ने॒ तेषां॑ शी॒र्षाणि॒ हर॒सापि॑ वृश्च ॥
स्वर सहित पद पाठय: । पौरु॑षेयेण । क्र॒विषा॑ । स॒म्ऽअ॒ङ्क्ते । य: । अश्व्ये॑न । प॒शुना॑ । या॒तु॒ऽधान॑: । य: । अ॒घ्न्याया॑: । भर॑ति । क्षी॒रम् । अ॒ग्ने॒ । तेषा॑म् । शी॒र्षाणि॑ । हर॑सा । अपि॑ । वृ॒श्च॒ ॥३.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः। यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च ॥
स्वर रहित पद पाठय: । पौरुषेयेण । क्रविषा । सम्ऽअङ्क्ते । य: । अश्व्येन । पशुना । यातुऽधान: । य: । अघ्न्याया: । भरति । क्षीरम् । अग्ने । तेषाम् । शीर्षाणि । हरसा । अपि । वृश्च ॥३.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मांसभक्षक के शिर काटने का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (यातुधानः) दुःखदायी जीव (पौरुषेयेण) पुरुषवध से [प्राप्त] (क्रविषा) मांस से, (यः) जो (अश्व्येन) घोड़े के [मांस से] और (पशुना) [दूसरे] पशु से (समङ्क्ते) [अपने को] पुष्ट करता है। और (यः) जो (अघ्न्यायाः) [नहीं मारने योग्य] गौ के (क्षीरम्) दूध को (भरति=हरति) नष्ट करता है, (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (तेषाम्) उनके (शीर्षाणि) शिरों को (हरसा) अपने बल से (अपि वृश्च) काट डाल ॥१५॥
भावार्थ
जो कोई पुरुष, मनुष्य वा घोड़े वा अन्य पशु का मांस खावे वा गौ को मारकर दूध को घटावे, राजा उसका शिर कटवा दे ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(यः) राक्षसः (पौरुषेयेण) अ० ७।१०५।१। पुरुषवधेन प्राप्तेन (क्रविषा) अर्चिशुचिहु०। उ० २।१०८। क्रव वधे-इसि। मांसेन (समङ्क्ते) सम्पूर्वकः अञ्जू भरणे भक्षणे च। आत्मानं पोषयति (यः) (अश्व्येन) भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। अश्व-यत्। अश्वसम्बन्धिना क्रविषा (पशुना) अजादिप्राणिना (यातुधानः) दुःखदायकः (यः) (अघ्न्यायाः) अ० ३।३०।१। अहन्तव्याया गोः (भरति) हस्य भः। हरति नाशयति (क्षीरम्) दुग्धम् (अग्ने) (तेषाम्) यातुधानानाम् (शीर्षाणि) शिरांसि (हरसा) बलेन (अपि वृश्च) सर्वथा छिन्धि ॥
विषय
मनुष्यों व पशुओं पर क्रुरता को रोकना
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = राजन्! (तेषाम्) = उनके (शीर्षाणि) = शिरों को (हरसा) = अपने ज्वलित तेज से (वृश्च) = तू छिन्न करनेवाला हो, अर्थात् इनको उचित दण्ड देकर इनके अपवित्र कार्यों से इन्हें रोक। सबसे प्रथम उसे रोक (यः) जो अपने को (पौरुषेयेण क्रविषा) = पुरुष-सम्बन्धी मांस से (संमक्ते) = संगत करता है। जो नर-मांस का सेवन करता है अथवा औरों को नष्ट करके अपने भोगों को बढ़ाता है, २. उसे तू रोक य:-जो अश्व्ये न-घोड़े के मांस से अपने को संगत करता है-जो घोड़े को दिन-रात जोते रखकर अपनी भोगवृत्ति को बढ़ाने का यत्न करता है। यः यातधान:-जो औरों को पीड़ित करनेवाला पशुना-अन्य पशुओं को पीड़ित करके अपने धन को बढ़ाना चाहता है। हे राजन्! तू उसे रोक य: जो अघ्न्याया: अहन्तव्य गौ के क्षीरं भरति-दूध को दूहने की बजाय पीड़ित करके हरना चाहता है। 'बछड़े को भी उचित मात्रा में दूध न देकर सारे दूध को स्वयं ले-लेने की कामना करता है,' उसे भी राजा दण्ड देकर इस अपराध से रोके।
भावार्थ
राजनियम ऐसा हो कि कोई भी मनुष्य अन्य मनुष्यों पर, घोड़ों व अन्य पशुओं पर, विशेषकर गौओं पर क्रूरता न कर सके।
भाषार्थ
(अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (यः) जो (यातुधानः) यातना देने वाला (पौरुषेयेण) पुरुष के (यः) जो (अश्व्येन) अश्व के (क्रविषा) मांस द्वारा (पशुना) [या अन्य किसी] पशु [के मांस] द्वारा (समङ्क्ते) अपने-आप को परिपुष्ट तथा कान्ति सम्पन्न करता है (यः) और जो (अघ्न्यायाः) अहन्तव्या गौ का हनन कर उसके (क्षीरम्) दूध को (भरति =हरति) हरता है, (तेषाम्) उन के (शीर्षाणि अपि) सिरों को भी (हरसा) अस्त्र-शस्त्र द्वारा (वृश्च) काट दे।
टिप्पणी
[मांसभक्षकों, तथा गौओं को मार कर उनके दूध का क्षय करने वालों के सिरों को भी प्रधानमन्त्री काट दे। प्रधानमन्त्री ने स्वयं तो सिरों को नहीं काटना, अपितु उसके निर्णीत नियमों के द्वारा जल्लाद आदि ने सिरो को काटना है। इन मन्त्रों में वर्णित दण्ड विधान को देखकर "अग्नि" आग अर्थ समन्वित नहीं होता।]
विषय
प्रजा पीडकों का दमन।
भावार्थ
(यः) जो आदमी (पौरुषेयेण) आदमी के (क्रविषा) मांस से (सम् अङ्के) अपने को पुष्ट करता है, और (यः) जो (यातु-धानः) पीड़ादायक पुरुष (अश्व्येन) घोड़े आदि पशु के मांस से या (पशुना) अन्य पशु के मांस से अपने को पुष्ट करता है। और (यः) जो (अघ्न्यायाः) न मारने योग्य गाय के (क्षीरम्) दूध को (भरति) चुरा लेता है ऐसे ऐसे (तेषाम्) उन प्रजापीड़क लोगों के (शीर्षाणि) सिरों को (हरसा) अपने हरणशील शस्त्र या क्रोध से (अपि वृश्च) काट ले।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः। अग्निर्देवता, रक्षोहणम् सूक्तम्। १, ६, ८, १३, १५, १६, १८, २०, २४ जगत्यः। ७, १४, १७, २१, १२ भुरिक्। २५ बृहतीगर्भा जगती। २२,२३ अनुष्टुभो। २६ गायत्री। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of the Evil
Meaning
Who feeds himself on human flesh, on horse flesh, on any animal flesh, who feeds on cow’s flesh and thus carries off the inviolable cow’s milk for all time, O Agni, with your power and passion for truth and right, cut off the head of such persons.
Translation
The tormentor, who feeds on human flesh, and who on the horse-meat, and on the cattle, and who steals away the milk of the inviolable cow, O adorable leader, may you cut off their head with your flame.
Translation
He who partakes the flesh of human-being, he who shares with the meet of animals like the horse and he who robs of the milk of unkillable cow is the monster and must be he headed by the ruler with striking force.
Translation
The fiend who feeds on the flesh of cattle the flesh of horses and of human bodies, who steals the milch-cow’s milk away, O King, tear off the heads of such with fiery fury!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(यः) राक्षसः (पौरुषेयेण) अ० ७।१०५।१। पुरुषवधेन प्राप्तेन (क्रविषा) अर्चिशुचिहु०। उ० २।१०८। क्रव वधे-इसि। मांसेन (समङ्क्ते) सम्पूर्वकः अञ्जू भरणे भक्षणे च। आत्मानं पोषयति (यः) (अश्व्येन) भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। अश्व-यत्। अश्वसम्बन्धिना क्रविषा (पशुना) अजादिप्राणिना (यातुधानः) दुःखदायकः (यः) (अघ्न्यायाः) अ० ३।३०।१। अहन्तव्याया गोः (भरति) हस्य भः। हरति नाशयति (क्षीरम्) दुग्धम् (अग्ने) (तेषाम्) यातुधानानाम् (शीर्षाणि) शिरांसि (हरसा) बलेन (अपि वृश्च) सर्वथा छिन्धि ॥
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