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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 13
    ऋषिः - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    57

    परा॑ शृणीहि॒ तप॑सा यातु॒धाना॒न्परा॑ग्ने॒ रक्षो॒ हर॑सा शृणीहि। परा॒र्चिषा॒ मूर॑देवाञ्छृणीहि॒ परा॑सु॒तृपः॒ शोशु॑चतः शृणीहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑ । शृ॒णी॒हि॒ । तप॑सा । या॒तु॒ऽधाना॑न् । परा॑ । अ॒ग्ने॒ । रक्ष॑: । हर॑सा । शृ॒णी॒हि॒ । परा॑ । अ॒र्चिषा॑ । मूर॑ऽदेवान् । शृ॒णी॒हि॒ । परा॑ । अ॒सु॒ऽतृप॑: । शोशु॑चत: । शृ॒णी॒हि॒ ॥३.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परा शृणीहि तपसा यातुधानान्पराग्ने रक्षो हरसा शृणीहि। परार्चिषा मूरदेवाञ्छृणीहि परासुतृपः शोशुचतः शृणीहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परा । शृणीहि । तपसा । यातुऽधानान् । परा । अग्ने । रक्ष: । हरसा । शृणीहि । परा । अर्चिषा । मूरऽदेवान् । शृणीहि । परा । असुऽतृप: । शोशुचत: । शृणीहि ॥३.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि ! [समान तेजस्वी राजन् !] (तपसा) अपने तप [ऐश्वर्य वा प्रताप] से (यातुधानान्) दुःखदायिओं को (परा शृणीहि) कुचल डाल, (रक्षः) राक्षसों [दुराचारियों वा रोगों] को (हरसा) अपने बल से (परा शृणीहि) मिटा दे। (अर्चिषा) अपने तेज से (मूरदेवान्) मूढ़ [निर्बुद्धि] व्यवहारवालों को (परा शृणीहि) नाश करदे, (शोशुचतः) अत्यन्त दमकते हुए, (असुतृपः) [दूसरों के] प्राणों से तृप्त होनेवालों को (परा शृणीहि) चूर-चूर कर दे ॥१३॥

    भावार्थ

    राजा अत्यन्त क्लेशदायक प्राणियों के नाश करने में सदा उद्यत रहे ॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(परा शृणीहि) सर्वथा विनाशय (तपसा) तापकेन तेजसा। ऐश्वर्येण। प्रतापेन (यातुधानान्) दुःखदायकान् (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (रक्षः) बहुवचनस्यैकवचनम्। रक्षांसि। रोगान् दुष्टप्राणिनो वा (हरसा) बलेन (परा शृणीहि) विमर्दय (अर्चिषा) तेजसा (मूरदेवान्) मन्त्र २। निर्बुद्धिव्यवहारयुक्तान् (असुतृपः) असुभिः परप्राणैरात्मानं तर्पयन्तः प्राणिनः (शोशुचतः) शुच दीप्तौ यङ्लुकि छान्दसः शतृ। शोशुचानान् भृशं देदीप्यमानान् (परा शृणीहि) चूर्णीकुरु ॥

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    विषय

    'तप, तेज व ज्योति' से पाप दूर करना

    पदार्थ

    १. (तपसा) = तप के द्वारा (यातुधानान्) = पीड़ा देनेवालों को (पराशृणीहि) = दूर विनष्ट कर । जिस समय जीवन में तप की कमी आ जाती है तब भोगवृत्ति बढ़ जाती है, उसी समय मनुष्य औरों को पीड़ित करनेवाला बनता है। यदि प्रजा में तपस्या की भावना बनी रहे तो उनके जीवनों में यातुधानत्व' आता ही नहीं। हे अने-राजन्! आप हरसा-[ज्वलितेन तेजसा-द०] तेजस्विता के द्वारा रक्ष:-राक्षसीवृत्तिवालों को (पराशृणीहि) = सुदूर विनष्ट करनेवाले होओ। तेजस्विता अशुभ वृत्तियों को विनष्ट करनेवाली है। २. अर्चिषा-ज्ञान की ज्वाला से मूरदेवान् मूर्खतापूर्ण व्यवहार करनेवालों को पराशृणीहि-विनष्ट कीजिए। ज्ञान-प्रसार के द्वारा मूर्खता के नष्ट होने पर सब व्यवहार विवेक व सभ्यता के साथ होने लगते हैं। असुतपः केवल अपने प्राणों को तृप्त करने में लगे हुए शोशुचत:-[to burn, consume] औरों के शोक का कारण बनते हुए इन लोगों को तू पराशृणीहि-सुदूर विनष्ट कर।

    भावार्थ

    जीवन में तपस्या के द्वारा यातुधानत्व का विनाश हो, तेजस्विता से राक्षसीवृत्ति का विलोप हो और ज्ञान-प्रसार के द्वारा 'मूर्खतापूर्ण व्यवहार तथा केवल अपने को तृस करने की वृत्ति' का-स्वार्थ का विलोप हो।

     

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (यातुधानान्) यातना देने वालों को (तपसा) तापक-शस्त्र-अस्त्र द्वारा (परा शृणीहि) पराङ्मुख कर, नष्ट कर, (रक्षः) राक्षस स्वभाव वाले को (परा) पराङ्मुख करके (हरसा) संहारी शस्त्र-अस्त्र द्वारा (शृणीहि) नष्ट कर। (मूरदेवान्) मूढ़ अर्थात् कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से रहित विजिगीषुओं को (परा) पराङ्मुख करके (अर्चिषा) ज्वाला द्वारा (शृणीहि) नष्ट कर, (असुतृपः) दूसरों के प्राणों को लेकर तृप्त होने वालों को, जो कि (शोशुचतः) अत्यन्त हनन कर्म में प्रदीप्त होते हैं, उन्हें (परा) पराङ्मुख करके (शृणीहि) नष्ट कर।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में यातुधान, रक्षः, मूरदेव, तथा असुतृपः भिन्न-भिन्न प्रकार के, आततायी वर्णित हैं, तथा "तपसा, हरसा, अर्चिषा" द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन हुआ है।]

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    विषय

    शत्रु-संहार

    शब्दार्थ

    (अग्ने) राजन् ! नेतः ! अपने (तपसा) पराक्रम से (यातुधानाम्) प्रजापीड़क अत्याचारियों को (परा शृणीहि) विनष्ट कर दे (हरसा) अपनी विनाशक शक्ति से (रक्ष:) राक्षसों को, दुष्ट पुरुषों को, आततायियों को (परा शृणीहि) मार भगा, अपने (अर्चिषा) तेज से (मूरदेवान्) मूढ़ देवों को, पाखण्डियों को (परा शृणीहि) समाप्त कर दे । (असु-तृप:) दूसरों का प्राण लेकर अपना पालन-पोषण करनेवाले डाकुओं को (शोशुचतः) धधककर (परा शृणीहि) अच्छी प्रकार नष्ट कर डाल ।

    भावार्थ

    राजा और नेता को अपने राज्य का निरीक्षण करते हुए ऐसा उपाय करना चाहिए कि प्रजा हर प्रकार से सुखी और आनन्दित रहे । इसके लिए - १. राजा को प्रजा को पीड़ा देनेवाले अत्याचारियों को कठोर दण्ड देना चाहिये । जो लोग प्रजा को लूटते हैं, वस्तुओं में मिलावट करते हैं, आवश्यक भोग्य पदार्थों को छिपा देते हैं, ऐसे सभी प्रजापीड़कों को नष्ट कर देना चाहिए । २. राक्षसों को, दुष्ट पुरुषों को, देश पर आक्रमण करनेवाले बाह्य शत्रुओं को भी अपनी विनाशक शक्ति से परास्त कर देना चाहिये । ३. मूढ़ देवों को, मूर्ख और पाखण्डियों को, पाखण्ड फैलाकर अपना उल्लू सीधा करनेवालों को मौत के घाट उतार देना चाहिए । ४. दूसरों का प्राण हरण करके रंगरेलियाँ मनानेवाले डाकुओं का भी सफाया कर देना चाहिये ।

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    विषय

    प्रजा पीडकों का दमन।

    भावार्थ

    हे अग्ने ! राजन् ! (यातुधानान्) प्रजापीड़क पुरुषों को (तपसा) अपने संतापकारी तेज या शस्त्र से (परा शृणीहि) अच्छी प्रकार, विनष्ट कर और (हरसा) विनाशक बल से (रक्षः) राक्षस, दुष्ट पुरुष को (परा-शृणीहि) अच्छी प्रकार विनष्ट कर। और (मूरदेवान्) मूढ देवों को माननेवाले, प्रतिमापूजक, पाखण्डी, या दूसरों को मारने के व्यसनी अथवा मूढ़ होकर व्यसनों में मज़ा लेनेवाले लोगों को (अर्चिषा) आग की ज्वाला से (परा शृणीहि) अच्छी प्रकार विनष्ट कर और (असु तृपः) दूसरों का प्राण लेकर अपना पेट भरनेवाले, प्राणघातक डाकुओं को (शोशुचतः) शोक विलाप करते हुए भी (पराशृणीहि) खूब अच्छी प्रकार विनष्ट कर कि वे फिर अपनी दुष्टता न करें। अथवा ‘अर्चिः’ ‘हर’ और ‘तपः’ ये तीन प्रकार के शस्त्र अस्त्र हैं जिनसे दूर से ही प्रहार कर दिया जाता है। उन तीनों प्रकार के अस्त्रों से उनकी (पराशृणीहि) इतना अधिक दण्ड दिया जाय कि ‘परा’ अर्थात हद हो जाय, और वे फिर भी दुष्टता को त्याग कर सन्मार्ग पर लौट आयें।

    टिप्पणी

    (च०) ‘परासुतृपो अभिशोशुचानः’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। अग्निर्देवता, रक्षोहणम् सूक्तम्। १, ६, ८, १३, १५, १६, १८, २०, २४ जगत्यः। ७, १४, १७, २१, १२ भुरिक्। २५ बृहतीगर्भा जगती। २२,२३ अनुष्टुभो। २६ गायत्री। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of the Evil

    Meaning

    Agni, with the force and power of your law and discipline, destroy the violent evil doers wholly, with your power and passion destroy the demonic forces wholly, with your light of knowledge and wisdom eliminate the stupid and insensitive wholly, and destroy the flaming ogres who suck the life blood of others for their pleasure. Destroy all these wholly, beyond recovery.

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    Translation

    With your heat, exterminate the tormentors; O adorable Lord, exterminate the wicked ones with your intense heat. Exterminate the worshippers of foolish gods with your flame; exterminate those, who seek satisfaction by running others lives, burning all over.

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    Translation

    O King exterminate the wickeds with fervent heat of anger, destroy the enemies with your power, destroy the hypocritic Persons and remove those men who are engaged day and night in their own eating and drinking and are burning with their own zeal.

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    Translation

    O King, with thy deadly strength exterminate the demons, destroy the fiends with thy destructive power. Destroy with the flame of fire the foolish pleasure-hunters. Destroy the murderous destroy weeping with grief!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(परा शृणीहि) सर्वथा विनाशय (तपसा) तापकेन तेजसा। ऐश्वर्येण। प्रतापेन (यातुधानान्) दुःखदायकान् (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (रक्षः) बहुवचनस्यैकवचनम्। रक्षांसि। रोगान् दुष्टप्राणिनो वा (हरसा) बलेन (परा शृणीहि) विमर्दय (अर्चिषा) तेजसा (मूरदेवान्) मन्त्र २। निर्बुद्धिव्यवहारयुक्तान् (असुतृपः) असुभिः परप्राणैरात्मानं तर्पयन्तः प्राणिनः (शोशुचतः) शुच दीप्तौ यङ्लुकि छान्दसः शतृ। शोशुचानान् भृशं देदीप्यमानान् (परा शृणीहि) चूर्णीकुरु ॥

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