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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 7
    ऋषिः - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    68

    उ॒तार॑ब्धान्त्स्पृणुहि जातवेद उ॒तारे॑भा॒णाँ ऋ॒ष्टिभि॑र्यातु॒धाना॑न्। अग्ने॒ पूर्वो॒ नि ज॑हि॒ शोशु॑चान आ॒मादः॒ क्ष्विङ्का॒स्तम॑द॒न्त्वेनीः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । आऽर॑ब्धान् । स्पृ॒णु॒हि॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । उ॒त । आ॒ऽरे॒भा॒णान् । ऋ॒ष्टिऽभि॑: । या॒तु॒ऽधाना॑न् । अग्ने॑ । पूर्व॑: । नि । ज॒हि॒ । शोशु॑चान: । आ॒म॒ऽअद॑: । क्ष्विङ्का॑: । तम् । अ॒द॒न्तु॒ । एनी॑: ॥३.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उतारब्धान्त्स्पृणुहि जातवेद उतारेभाणाँ ऋष्टिभिर्यातुधानान्। अग्ने पूर्वो नि जहि शोशुचान आमादः क्ष्विङ्कास्तमदन्त्वेनीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । आऽरब्धान् । स्पृणुहि । जातऽवेद: । उत । आऽरेभाणान् । ऋष्टिऽभि: । यातुऽधानान् । अग्ने । पूर्व: । नि । जहि । शोशुचान: । आमऽअद: । क्ष्विङ्का: । तम् । अदन्तु । एनी: ॥३.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (उत) और (जातवेदः) हे प्रसिद्धधनवाले राजन् ! (आरब्धान्) [शत्रुओं करके] पकड़े हुओं को (स्पृणुहि) पाल (उत) और (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (पूर्वः) सब से पहिले और (शोशुचानः) अति प्रकाशमान तू (आरेभाणान्) [हमें] पकड़नेवाले (यातुधानान्) दुःखदायियों को (ऋष्टिभिः) दो धारा तरवारों से (नि जहि) मार डाल, (आमादः) मांस खानेवाली (एनीः) चितकबरी, (क्ष्विङ्काः) अव्यक्त शब्द बोलनेवाली [चील आदि पक्षी] (तम्) हिंसक चोर को (अदन्तु) खा जावें ॥७॥

    भावार्थ

    राजा प्रजा के पालने और वैरियों के मारने में सदा उद्यत रहे ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(उत) अपि च (आरब्धान्) रभ उपक्रमे-क्त। शत्रुभिर्गृहीतान् (स्पृणुहि) स्पृ पालने। पालय (जातवेदः) हे प्रसिद्धधन राजन् (उत) (आरेभाणान्) रभ उपक्रमे-कानच्। अत एकहल्मध्येऽनादेशादेर्लिटि। पा० ६।४।१२०। अकारस्य एत्वम्, अभ्यासलोपश्च। ग्रहणशीलान् (ऋष्टिभिः) ऋषी गतौ-क्तिन्। उभयतो धारयुक्तैः खङ्गैः (यातुधानान्) पीडाप्रदान् (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (पूर्वः) अग्रगामी (नि) निरन्तरम् (जहि) मारय (शोशुचानः) अ० ४।११।३। भृशं दीप्यमानः (आमादः) मांसाशनाः (क्ष्विङ्काः) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। ञिक्ष्विदा स्नेहमोचनयोः, अव्यक्त-शब्दे च-इण्, स च डित्। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। क्ष्वि+कै शब्दे-क। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। पा० ६।३।१४। इत्यलुक्। चिल्लादिपक्षिणः (तम्) तर्द हिंसने-ड। हिंसकं चोरम् (अदन्तु) भक्षयन्तु (एनीः) अ० ६।८३।२। कुर्बुरवर्णाः ॥

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    विषय

    अपरिपक्वता को दूर करनेवाली ज्ञान की वाणियाँ

    पदार्थ

    १.हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! आप (आरेभाणान्) = आपके स्तवन में प्रवृत्त हमें (स्पृणुहि) = [पालय] रक्षित कीजिए, (उत) = और (आरब्धान) = जिन्होंने हमें जकड़ लिया है। [रभ to clasp] उन (यातुधानान) = पीड़ा का आधान करनेवाले राक्षसीभावों को (ऋष्टिभि:) = [ऋषु गतौ, ऋषिर्दर्शनात्] क्रियाशीलता व ज्ञानरूप शस्त्रों के द्वारा [स्मृणुहि] नष्ट कीजिए [स्मृ to kill]। २. हे अने अग्रणी प्रभो! (शोशचान:) = ज्ञान से दीस होते हुए आप मुझे भी ज्ञानदीप्ति प्राप्त कराके (पूर्व:) = [पृ पालनपूरणयोः] मेरा पालन व पूरण करनेवाले होते हुए (निजहि) = इन राक्षसीभावों को नष्ट कर दीजिए। (आमादः) = [आम अद्] कच्चेपन को समास कर देनेवाली (एनी:) = उज्वल-शुभ्र (श्विङ्का:) =  [क्षु शब्दे] ज्ञान की वाणियाँ (तम्) = उस राक्षसीभाव को (अदन्तु) = खा जाएँ।

    भावार्थ

    हमारे अशुभभाव दूर होकर हमारे जीवनों में शुद्धभावों का वर्धन हो। ये ज्ञान की वाणियाँ हमारी अपरिपक्वता को दूर कर दें। परिपक्व विचारोंवाले बनकर हम अशुभ वासनाओं में न फंस जाएँ।

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    भाषार्थ

    (जातवेदः) हे उत्पन्नप्रज्ञ ! (उत) तथा (आरब्धान्) जिन्होंने युद्ध आरम्भ कर दिया है उन पर (स्पृणुहि) तू वाणों की बौछार कर, (उत) तथा (आरेभाणान्) जो युद्धारम्भ करने वाले हैं उन (यातुधानान्) यातना देने वालों को, (ऋष्टिभिः) आयुधों द्वारा, (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (शोशुचानः) तेजस्वी शस्त्रास्त्रों द्वारा तेजस्वी हुआ तू (पूर्वः) पहला हो कर (निजहि) नितरां मार डाल। (आमादः) कच्चा मांस खाने वाले (एनीः) नाना वर्णों वाले (क्ष्विङ्काः) पक्षी, (तम्) उस प्रत्येक यातुधान को (अदन्तु) खा जाय।

    टिप्पणी

    [स्पृणुहि= स्पृ प्रीतिसेवनयोः। प्रीतिचलनयोरित्यन्ये (स्वादिः), धातुप्रोक्त अर्थ मन्त्र में संगत प्रतीत नहीं होता। सम्भवतः आङ्गल भाषा का "Spray" शब्द "स्पृ” का विकृतरूप हो, जिसका अर्थ है बौछार करना। इससे मन्त्रार्थ संगत हो जाता है। सायणाचार्य ने अर्थ किया है “आरब्धान् त्वां स्तोतुप्रक्रान्तान् अस्मान् स्पृणुहि पालय"। "स्पृणुहि" अथवा उनकी तू वाणों द्वारा सेवा कर। यह वक्तोक्ति है। अभिप्राय पूर्ववत् है कि वाणों की बौछार कर (स्पृ सेवने)]।

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    विषय

    प्रजा पीडकों का दमन।

    भावार्थ

    हे (जातवेदः) अग्ने ! प्रजाजनों के जानने हारे विद्वान् राजन् ! (उत) और तू (आरब्धान्) पकड़े हुए (उत) और (आरेभाणान्) सर्वत्र कोलाहल करते हुए (यातुधानान्) प्रजापीड़क पुरुषों को (ऋष्टिभिः) ॠष्टि नामक तीक्ष्ण धार वाले शस्त्रों द्वारा, संगीनधारी सिपाहियों की रखवाली में (स्पृणुहि) रख। और हे (अग्ने) अग्नि के समान दुष्टपीड़क ! (पूर्वः) सब से श्रेष्ठ तू (शोशुचानः) अपनी दीप्ति से प्रकाशमान होकर उन प्रजापीड़कों को (नि जहि) सर्वथा मार डाल। और या (आमादः) कच्चा मांस खाने बाली (एनीः) लाल काली (क्ष्विकाः) चीलें (एनम्) इसको (अदन्तु) खाजाएं। राजा दुष्टों को संगीनों के पहरे में रक्खे, या उन का तुरन्त ही विनाश करे और चीलों से नुचवा डाले।

    टिप्पणी

    (प्र०, द्वि०) ‘उतालब्धं स्पृणुहि’ जातवेद् आलेभानादृष्टिभिर्यातुधानात्’ इति ऋग्वेद।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। अग्निर्देवता, रक्षोहणम् सूक्तम्। १, ६, ८, १३, १५, १६, १८, २०, २४ जगत्यः। ७, १४, १७, २१, १२ भुरिक्। २५ बृहतीगर्भा जगती। २२,२३ अनुष्टुभो। २६ गायत्री। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of the Evil

    Meaning

    Agni, Jataveda, those that have been seized and those that have surrendered and appeal, protect. But the destroyer, O scorching power, strike down without delay with the force of arms and let carnivorous birds and animals feed upon them.

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    Translation

    O knower of all, may you smite with your weapons, the tormentors, who have invaded and also those who are coming to invade. O sacrificial fire, may you, blazing fiercely, kill them first. Let the spotted carrion-eating birds (Ksvitika) devour him.

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    Translation

    O Wise King! rescue those persons of your party whom the enemies have captures, strike down the attacking enemies with lethal weapons. O mighty One! Kill the torturers of the subject keeping yourself full of power and sharp in temperament and let the flash-eating kites devour them.

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    Translation

    O King, protect the captives. O King, foremost of all, blazing with thy luster, kill with double-edged swords, the terrible foes, who want to capture us. Let spotted carrion eating vultures devour that violent person!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(उत) अपि च (आरब्धान्) रभ उपक्रमे-क्त। शत्रुभिर्गृहीतान् (स्पृणुहि) स्पृ पालने। पालय (जातवेदः) हे प्रसिद्धधन राजन् (उत) (आरेभाणान्) रभ उपक्रमे-कानच्। अत एकहल्मध्येऽनादेशादेर्लिटि। पा० ६।४।१२०। अकारस्य एत्वम्, अभ्यासलोपश्च। ग्रहणशीलान् (ऋष्टिभिः) ऋषी गतौ-क्तिन्। उभयतो धारयुक्तैः खङ्गैः (यातुधानान्) पीडाप्रदान् (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् राजन् (पूर्वः) अग्रगामी (नि) निरन्तरम् (जहि) मारय (शोशुचानः) अ० ४।११।३। भृशं दीप्यमानः (आमादः) मांसाशनाः (क्ष्विङ्काः) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। ञिक्ष्विदा स्नेहमोचनयोः, अव्यक्त-शब्दे च-इण्, स च डित्। आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। क्ष्वि+कै शब्दे-क। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। पा० ६।३।१४। इत्यलुक्। चिल्लादिपक्षिणः (तम्) तर्द हिंसने-ड। हिंसकं चोरम् (अदन्तु) भक्षयन्तु (एनीः) अ० ६।८३।२। कुर्बुरवर्णाः ॥

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