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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 23
    ऋषिः - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    55

    वि॒षेण॑ भङ्गु॒राव॑तः॒ प्रति॑ स्म र॒क्षसो॑ जहि। अग्ने॑ ति॒ग्मेन॑ शो॒चिषा॒ तपु॑रग्राभिर॒र्चिभिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒षेण॑ । भ॒ङ्गु॒रऽव॑त: । प्रति॑ । स्म॒ । र॒क्षस॑: । ज॒हि॒ । अग्ने॑। ति॒ग्मेन॑ । शो॒चिषा॑ । तपु॑:ऽअग्राभि: । अ॒र्चिऽभि॑: ॥३.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विषेण भङ्गुरावतः प्रति स्म रक्षसो जहि। अग्ने तिग्मेन शोचिषा तपुरग्राभिरर्चिभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विषेण । भङ्गुरऽवत: । प्रति । स्म । रक्षस: । जहि । अग्ने। तिग्मेन । शोचिषा । तपु:ऽअग्राभि: । अर्चिऽभि: ॥३.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि [समान तेजस्वी राजन् !] (विषेण) विष से [वा अपनी व्याप्ति से] (भङ्गुरावतः) नाश कर्मवाले (रक्षसः) राक्षसों का (स्म) अवश्य (तिग्मेन) तीव्र (शोचिषा) तेज से और (तपुरग्राभिः) तापयुक्त शिखाओंवाली (अर्चिभिः) ज्वालाओं से (प्रति जहि) नाश कर दे ॥२३॥

    भावार्थ

    राजा उपद्रवियों को तीव्र दण्ड देता रहे ॥२३॥

    टिप्पणी

    २३−(विषेण) गरलेन स्वव्यापनेन वा (भङ्गुरावतः) अ० ७।७१।१। नाशकर्मयुक्तान् (प्रति) प्रतिकूलम् (स्म) अवश्यम् (रक्षसः) पुंल्लिङ्गत्वं छान्दसम्। रक्षांसि (जहि) नाशय (अग्ने) (तिग्मेन) तीक्ष्णेन (शोचिषा) तेजसा (तपुरग्राभिः) अर्तिपॄवपि०। उ० २।११७। तप दाहे-उसि। तापकशिखायुक्ताभिः (अर्चिभिः) ज्वालाभिः ॥

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    विषय

    व्यापक ज्ञान व सूर्यवत् गति

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = प्रकाशमय प्रभो! आप (विषेण) = [विष व्याप्तौ] व्यापक ज्ञान के द्वारा (भंगुरावत:) = हमारी शक्तियों का भंग करनेवाली (रक्षस:) = राक्षसीवृत्तियों को (प्रति जाहि स्म) = निश्चय से एक एक करके नष्ट कर दीजिए, ज्ञानाग्नि में सब वासनाएँ भस्म हो ही जाती हैं। २. (तिग्मेन शोचिषा) = तीव्र ज्ञान की ज्योति से तथा (तपुः अनभि:) = [तपु-The sun] सूर्य है आगे जिसके ऐसी (ऋष्टिभिः) = [ऋष् गतौ] गतियों से हमारी राक्षसीवृत्तियों को समाप्त कीजिए। सूर्य को सम्मुख करके, अर्थात् सूर्य को आदर्श मानकर की जानेवाली गतियों 'तपुरमा ऋष्टियाँ हैं। 'सूर्याचन्द्रमसाविव' सूर्य और चन्द्रमा की भाँति नियमित गति से अशुभ वृत्तियाँ दूर हो जाती हैं।

    भावार्थ

    व्यापक व दौस ज्ञान से तथा सूर्य की भाँति नियमित गति से हम अशुभ वृत्तियों को नष्ट करनेवाले बनें।

     

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (विषेण) विष प्रयोग द्वारा (भङ्गुरावतः)१ भग्नस्वभाव वाले या भङ्गुर-चित्तवृत्तियों वाले (रक्षसः) राक्षसों में से (प्रति) प्रत्येक का (जहि) हनन कर, (तिग्मेन) तथा तीक्ष्ण (शोचिषाः) दीप्ति द्वारा, [जहि] [इनका हनन कर] तथा (तपुरग्राभिः) तपते अग्रभागों वाले (अर्चिभिः) अर्चि नामक अस्त्रों द्वारा [जहि] [इन का हनन कर]।

    टिप्पणी

    [तीन साधनों द्वारा राक्षसस्वभाव वालों के विनाश का वर्णन मन्त्र में हुआ है। (१) विषप्रयोग द्वारा। (२) आंखों पर तीक्ष्ण प्रकाश डाल कर इन्हें चौंधिया कर। (३) अस्त्रों के अग्रभाग में तपाने वाले आग्नेय-विस्फोटक लगाकर। ऋग्वेद (१०।८७।२३) में 'अर्चिभिः' के स्थान में 'ऋष्टिभिः' का प्रयोग हुआ है। ऋष्टिः= आयुध (अथर्व० ८।३।७)। तथा “शतम् ऋष्टीः अयस्मयीः', (अथर्व ४।३७।८), लोहनिर्मित सैकड़ों ऋष्टियां, आयुध]। [१. अथवा आसानी से भग्न हो जाने वाले]

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    विषय

    प्रजा पीडकों का दमन।

    भावार्थ

    (विषेण) विष से (भंगुरावतः) प्रजा को पीड़ित करने वाले (रक्षसः) दुष्ट पुरुषों को, हे (अग्ने) राजन् ! अपने (तिग्मेन) तीक्ष्ण (शोचिषा) तेज से स्वयं (तपुरग्राभिः) अग्नि से संतप्त अगले फलों वाली, अति भयंकर (अर्चिभिः) दीप्त ज्वालाओं से (प्रति जहिस्म) विनष्ट कर। (भंगुरावतः विषण प्रतिजहि स्म) दुष्ट पुरुषों को विष से मार।

    टिप्पणी

    (द्वि०) प्रति ध्म रक्षसो दहं—‘ग्रामिर्ऋष्टिमिः’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। अग्निर्देवता, रक्षोहणम् सूक्तम्। १, ६, ८, १३, १५, १६, १८, २०, २४ जगत्यः। ७, १४, १७, २१, १२ भुरिक्। २५ बृहतीगर्भा जगती। २२,२३ अनुष्टुभो। २६ गायत्री। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of the Evil

    Meaning

    Agni, with all round watchful presence and all time cleansing process against poisonous elements and antisocial forces, destroy the evil, the saboteurs and the demonic destroyers with blazing beams and flames of scorching fire.

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    Translation

    With your poisonous, intense burning heat, and with flames scorching at their points, O fire divine, may you annihilate the destructive wicked ones.

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    Translation

    O ruler! Kill the treacherous antinational elements with poison. O mighty one j destroy them with sharpened glow of yours and with the rays which flesh with points of flames.

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    Translation

    O King, with thy sharpened glow, with rays that flash with points of flame, strike thou back the treacherous brood of evil-minded persons who kill others with poison.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३−(विषेण) गरलेन स्वव्यापनेन वा (भङ्गुरावतः) अ० ७।७१।१। नाशकर्मयुक्तान् (प्रति) प्रतिकूलम् (स्म) अवश्यम् (रक्षसः) पुंल्लिङ्गत्वं छान्दसम्। रक्षांसि (जहि) नाशय (अग्ने) (तिग्मेन) तीक्ष्णेन (शोचिषा) तेजसा (तपुरग्राभिः) अर्तिपॄवपि०। उ० २।११७। तप दाहे-उसि। तापकशिखायुक्ताभिः (अर्चिभिः) ज्वालाभिः ॥

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