अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 11
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अतिथिः, विद्या
छन्दः - साम्न्यनुष्टुप्
सूक्तम् - अतिथि सत्कार
यदा॑ञ्जनाभ्यञ्ज॒नमा॒हर॒न्त्याज्य॑मे॒व तत् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । आ॒ञ्ज॒न॒ऽअ॒भ्य॒ञ्ज॒नम् । आ॒ऽहर॑न्ति । आज्य॑म् । ए॒व । तत् ॥६.११॥
स्वर रहित मन्त्र
यदाञ्जनाभ्यञ्जनमाहरन्त्याज्यमेव तत् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । आञ्जनऽअभ्यञ्जनम् । आऽहरन्ति । आज्यम् । एव । तत् ॥६.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6;
पर्यायः » 1;
मन्त्र » 11
विषय - अतिथि के लिए 'बिछौना, स्नान, भोजन' आदि की व्यवस्था
पदार्थ -
१. (यत्) = जो (कशिपु उपबर्हणम्) = [a bed] बिस्तरा वा तकिया (आहरन्ति) = प्राप्त कराते हैं, (ते परिधयः एव) = वे यज्ञ में परिधि नामक पलाश-दण्डों के समान हैं [A stick of a sacred tree like पलाश laid around the sacrificial fire]| २. (यत्) = जो (आञ्जन)-आँखों के लिए अञ्जन वा (अभ्यञ्जनम्) = शरीर-मालिश के लिए तेल, उबटन आदि (आहरन्ति) = लाते हैं, (तत् आज्यम् एव) = वह यज्ञ में लाया जानेवाला घृत ही है। (यत्) = जो (परिवेषात्) = घर के लोगों के लिए भोजन परोसने से (पुरा) = पूर्व ही अतिथि के लिए (खादम् आहरन्ति) = भोजन लाते हैं, तो (पुरोडाशौ एव) = वे यज्ञ की दो पुरोडाश आहुतियाँ ही हैं। ४. (यत्) = जो (अशनकृतं ह्वयन्ति) = भोजन बनानेवाले कुशल पुरुष को बुलाते हैं, (तत् हविष्कृतम् एवं ह्वयन्ति) = वह यज्ञ में चरु तैयार करनेवाले पुरुष को ही बुलाते हैं।
भावार्थ -
अतिथि के लिए रात्रि में सोने के लिए बिछौना और प्रात: उठने पर स्नान-सामग्नी व तदनन्तर भोजनादि प्राप्त कराना-अतिथियज्ञ की ये सब क्रियाएँ देवयज्ञ की क्रियाओं के समान ही हैं।
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