अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अतिथिः, विद्या
छन्दः - आसुरी गायत्री
सूक्तम् - अतिथि सत्कार
या ए॒व य॒ज्ञ आपः॑ प्रणी॒यन्ते॒ ता ए॒व ताः ॥
स्वर सहित पद पाठया: । ए॒व । य॒ज्ञे । आप॑: । प्र॒ऽनी॒यन्ते॑ । ता: । ए॒व । ता: ॥६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
या एव यज्ञ आपः प्रणीयन्ते ता एव ताः ॥
स्वर रहित पद पाठया: । एव । यज्ञे । आप: । प्रऽनीयन्ते । ता: । एव । ता: ॥६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6;
पर्यायः » 1;
मन्त्र » 5
विषय - अतिथियज्ञ-देवजन
पदार्थ -
१. (यत्) = जब (अतिथिपति:) = अतिथियों का पालक गृहपति [गृहस्थ Host] (अतिथीन् प्रतिपश्यति) = अतिथियों की ओर देखता है, तब वह (वै देवयजनं प्रेक्षते) = निश्चय से देवयजन । को देखता है। वह यही सोचता है कि यह अतिथियज्ञ ही मेरा देवयज्ञ है। इसके द्वारा मैं अपने साथ देवों का [दिव्य गुणों का] यजन करूँगा-दिव्य गुणों को धारण करनेवाला बनूंगा। २. (यत् अभिवदति) = जब अतिथि का अभिवादन करता है तब वह (दीक्षाम् उपैति) = यज्ञ में दीक्षा [व्रत-ग्रहण] को प्राप्त करता है। (यत्) = जब (उदकं याचति) = जल-पात्रों में जल के द्वारा 'अर्ष, पाध, आचमनीय' आदि लेने के लिए कहता है तब वह (अपः प्रणयति) = मानो देवयज्ञ में जलों को प्रणीता-पात्र में लाता है। ३. (याः एव यज्ञे आपः प्रणीयन्ते) = जो भी जल यज्ञ में प्रणीता पात्र में लाये जाते हैं, (ताः एव ता:) = वे ही ये जल हैं जो अतिथियज्ञ में 'अर्घ, पाद्य, आचमनीय' के रूप में प्रयुक्त हो रहे हैं।
भावार्थ -
अतिथि सत्कार 'देवयज्ञ' ही है। यह अपने जीवन में दिव्य गुणों को धारण करने का उत्तम साधन है।
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