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अथर्ववेद > काण्ड 9 > सूक्त 6 > पर्यायः 1

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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अतिथिः, विद्या छन्दः - याजुषी त्रिष्टुप् सूक्तम् - अतिथि सत्कार

    यदु॑पस्तृ॒णन्ति॑ ब॒र्हिरे॒व तत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । उ॒प॒ऽस्तृ॒णन्ति॑ । ब॒र्हि: । ए॒व । तत् ॥६.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदुपस्तृणन्ति बर्हिरेव तत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । उपऽस्तृणन्ति । बर्हि: । एव । तत् ॥६.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6; पर्यायः » 1; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. (यत्) = जो (तर्पणम्) = अतिथि के लिए तृप्तिकारक मधुपर्क आदि पदार्थ प्राप्त कराये जाते हैं और (यः एव) = जो (अग्रीषोमीय:) = अग्नि व सोम देवतावाला (पशः बध्यते) = पशु बाँधा जाता है, (सः एव सः) = वह तर्पण वह पशु ही हो जाता है। सिंह आदि अग्नितत्त्व प्रधान पशु हैं, तो गौ आदि सोमतत्त्व प्रधान। यज्ञों में दोनों प्रकार के ही पशु बाँधे जाते हैं। इसप्रकार यज्ञ में उपस्थित बालकों व युवकों को प्राणी-शास्त्र का ज्ञान खेल-खेल में ही हो जाता था। २. यत्-जो अतिथि के निवास के लिए (आवसथान् कल्पयन्ति) = उचित गृह बनाते हैं, (तत्) = वह एक प्रकार से (सदोहविर्धानानि) = [सदस] प्राचीन वंशगृह [सभास्थान] और हविर्धान नामक पात्रों को ही (कल्पयन्ति) = बनाते हैं। ३. (यत्) = जो अतिथि के लिए (उपस्तृणन्ति) = चारपाई या टाट बिछाते हैं, (तत् बहिः एव) = वह यज्ञ में कुशाओं का बिछौना ही है। ४. (यत् उपरिशयनम् आहरन्ति) = जो गद्दा लाकर चारपाई पर बिछाते हैं अथवा अपने से ऊँचे स्थान में अतिथि को सुलाते हैं तो (तेन) = उस अतिथि-सत्कार की क्रिया से स्(वर्ग लोकम् एव अवरुन्द्ध) = अपने लिए स्वर्गलोक को ही सुरक्षित कर लेते हैं [रोक लेते हैं]।

    भावार्थ -

    अतिथि-सत्कार हमारे घरों को स्वर्ग-तुल्य बनाता है।

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