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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 6 के मन्त्र
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मन्त्र चुनें
अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अतिथिः, विद्या
छन्दः - आसुरी गायत्री
सूक्तम् - अतिथि सत्कार
71
या ए॒व य॒ज्ञ आपः॑ प्रणी॒यन्ते॒ ता ए॒व ताः ॥
स्वर सहित पद पाठया: । ए॒व । य॒ज्ञे । आप॑: । प्र॒ऽनी॒यन्ते॑ । ता: । ए॒व । ता: ॥६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
या एव यज्ञ आपः प्रणीयन्ते ता एव ताः ॥
स्वर रहित पद पाठया: । एव । यज्ञे । आप: । प्रऽनीयन्ते । ता: । एव । ता: ॥६.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
संन्यासी और गृहस्थ के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(याः) जो (एव) ही (आपः) जल (यज्ञे) यज्ञ में (प्रणीयन्ते) आदर से लाये जाते हैं, (ताः) वे (एव) ही (ताः) वे [अतिथि के लिये उपकारी होते हैं] ॥५॥
भावार्थ
संन्यासी लोग उपकार दृष्टि से ही जल पान आदि करते हैं ॥५॥
टिप्पणी
५−(याः) (एव) (यज्ञे) सत्करणीये व्यवहारे (आपः) जलानि (प्रणीयन्ते) आदरेण दीयन्ते (ताः) जलानि (एव) (ताः) उपकारिण्य इत्यर्थः ॥
विषय
अतिथियज्ञ-देवजन
पदार्थ
१. (यत्) = जब (अतिथिपति:) = अतिथियों का पालक गृहपति [गृहस्थ Host] (अतिथीन् प्रतिपश्यति) = अतिथियों की ओर देखता है, तब वह (वै देवयजनं प्रेक्षते) = निश्चय से देवयजन । को देखता है। वह यही सोचता है कि यह अतिथियज्ञ ही मेरा देवयज्ञ है। इसके द्वारा मैं अपने साथ देवों का [दिव्य गुणों का] यजन करूँगा-दिव्य गुणों को धारण करनेवाला बनूंगा। २. (यत् अभिवदति) = जब अतिथि का अभिवादन करता है तब वह (दीक्षाम् उपैति) = यज्ञ में दीक्षा [व्रत-ग्रहण] को प्राप्त करता है। (यत्) = जब (उदकं याचति) = जल-पात्रों में जल के द्वारा 'अर्ष, पाध, आचमनीय' आदि लेने के लिए कहता है तब वह (अपः प्रणयति) = मानो देवयज्ञ में जलों को प्रणीता-पात्र में लाता है। ३. (याः एव यज्ञे आपः प्रणीयन्ते) = जो भी जल यज्ञ में प्रणीता पात्र में लाये जाते हैं, (ताः एव ता:) = वे ही ये जल हैं जो अतिथियज्ञ में 'अर्घ, पाद्य, आचमनीय' के रूप में प्रयुक्त हो रहे हैं।
भावार्थ
अतिथि सत्कार 'देवयज्ञ' ही है। यह अपने जीवन में दिव्य गुणों को धारण करने का उत्तम साधन है।
भाषार्थ
(यज्ञे) यज्ञ के निमित्त (एव) ही (या आपः) जो जल (प्रणीयन्ते) लाए जाते हैं (ताः एव ताः) वे ही वे हैं [जोकि अतिथि यज्ञ के निमित्त लाए जाते हैं]
विषय
अतिथि-यज्ञ और देवयज्ञ की तुलना।
भावार्थ
(याः एव यज्ञे आपः) जो जल यज्ञ में (प्रणीयन्ते) प्रोक्षण कार्य में प्रयुक्त होते हैं (ता एव ताः) वे ही वे जल हैं जो अतिथि यज्ञ में अर्ध्य पाद्य, आचमनीय आदि के लिये प्रयुक्त होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
‘सो विद्यात्’ इति षट् पर्यायाः। एकं सुक्तम्। ब्रह्मा ऋषिः। अतिथिरुत विद्या देवता। तत्र प्रथमे पर्याये १ नागी नाम त्रिपाद् गायत्री, २ त्रिपदा आर्षी गायत्री, ३,७ साम्न्यौ त्रिष्टुभौ, ४ आसुरीगायत्री, ६ त्रिपदा साम्नां जगती, ८ याजुषी त्रिष्टुप्, १० साम्नां भुरिग बृहती, ११, १४-१६ साम्न्योऽनुष्टुभः, १२ विराड् गायत्री, १३ साम्नी निचृत् पंक्तिः, १७ त्रिपदा विराड् भुरिक् गायत्री। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Atithi Yajna: Hospitality
Meaning
The water he brings is water for yajna, and the water is as sacred as water consecrated by Divinity.
Translation
That is, as if, the very same waters, that are brought to the sacrifice.
Translation
The waters brought for the guest are the same solemn water which are arranged for the yajna.
Translation
The water that is solemnly brought at a sacrifice (Yajna) is the same water as is offered to an honorable guest.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(याः) (एव) (यज्ञे) सत्करणीये व्यवहारे (आपः) जलानि (प्रणीयन्ते) आदरेण दीयन्ते (ताः) जलानि (एव) (ताः) उपकारिण्य इत्यर्थः ॥
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